एक विधुर की जिंदगी
घर का बड़ा बेटा था
जिम्मेदारियों से दबा था
जिंदगी के किसी मोड़े पर एक हमसफ़र की आस थी
इसी से जिंदगी बस थोड़ी सी निराश थी
जब हम पहली बार मिले थे
मन की वादियों में फूल से खिल उठे थे
हम विवाह बंधन में बंध चुके थे
हमारी जिंदगी को कुछ मायने मिल गए थे
एक साल का साथ देकर
आप सुदूर चले गए हमें छोड़कर
अब जिंदगी अकेले जीता हूँ
बस आपकी यादों को तराशता हूँ
अब पचपन के पार हूँ
बस अपने दिल को स्वीकार हूँ
अब कुछ दिनों की बात है
फिर तो स्वर्ग का ही आत्मसात है
तब जब हम फिर मिलेंगे
स्वर्ग की वादियों में फिर से फूल खिलेंगे
एक विधुर की जिंदगी

2 Comments:
Great words...
Great words...
Post a Comment
Subscribe to Post Comments [Atom]
<< Home