Monday, August 4, 2014

शस्त्र और शास्त्र

हमारी पुरानी शिक्षा पद्धति में साफ़ साफ़ विदित होता है कि शास्त्र और शस्त्र की विद्या दोनों ही एक साथ दी जानी चाहिए। शास्त्र विद्या मानवीय सच्चाई, मानव जाति की उत्पत्ति का कारण, समाज में एक समरसता,  धर्म , नीति इत्यादि को समावेशित करता था । जबकि शस्त्र विद्या स्वरक्षा, धर्म रक्षा, मानव कल्याण और राज्य की रक्षा से प्रेरित था। शस्त्र निपुणता हमें शक्तिशाली जरूर बनता है परन्तु शास्त्र विद्या के अभाव में यही शक्ति हमें मानवता से दूर अपने को सर्वशक्तिमान के रूप में प्रतिष्ठित करने के लिए प्रेरित भी करती है।
महाभारत में एकलब्य से द्रोणाचार्य का अंगूठा मांगना भी ऐसे ही सोच से प्रेरित प्रतीत होता है। एकलब्य ने अपने को धनुर्विद्या में तो निपुण कर लिया था परन्तु द्रोणाचार्य को यह पता था कि उसे शास्त्र ज्ञान की प्राप्ति नहीं हुई है और मानवजाति को इसके गंभीर परिणाम भुगतने पद सकते हैं । 

आज के परिवेश में हम यही देख रहे हैं कि हमारी स्कूली शिक्षा हमारे देश के बच्चों को बस उनकी जिंदगी में आने वाले जद्दोजहद से दो चार होने और उस पर विजय पाने के लिए सभी शस्त्र मुहैया कराने का दावा करती है। आज के स्कूलों और कॉलेजों के विज्ञापन इस तथ्य को सर्वथा उजागर करते हैं। क्षेत्रीय भाषा, इतिहास, भूगोल, दर्शन, धर्म, राजनीति,  नैतिक मूल्य इत्यादि जिंदगी में आगे बढ़ने की परिभाषा में कहीं भी कोई योगदान नहीं दे रहे हैं।  आज यही बच्चे बड़े होकर जब अपने शस्त्रों (प्रौद्योगिक दक्षता, वाक्पटुता, मैनेजमेंट स्किल, व्यक्तित्व विकास, शरीर सौष्ठव, लीडरशिप स्किल इत्यादि) से लैस दुनिया रुपी रणभूमि में पहुंचते हैं तो शास्त्र विद्या के अभाव में जिंदगी के मायने ही समझने में अपने आपको असमर्थ पाते हैं।

इसी क्रम में एन केन प्रकारेण हमारी अपने को सबसे ऊपर देखने की इच्छा देश के आगे भयावह स्थिति खड़ा कर चुका है या कर सकता है। इस अधूरी विद्या को जितनी जल्दी हो सके एक सम्पूर्ण विद्या में परिवर्तित करने की आज देश को जरूरत है। अन्यथा हम कुछ भी कर लें देश के अच्छे दिन हमसे दूर होते जायेंगे। 

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