Saturday, June 18, 2011

सरकारी तंत्र

कहने को तो हर नागरिक को अपने देश पर गर्व होना चाहिए परन्तु अपने देश कि हालत ऐसी हो गयी है कि समझ में ही नहीं आता कि इस दशा पर हमें क्या करना चाहिए कितना ही सकारात्मक सोच रखने कि कोशिश करूँ लेकिन धयान घूम फिर कर अपनी खामिओं पर ही रुक जाता हैइसका मतलब यह जरूर होगा कि खामियां ज्यादा हैं और अच्छाईयाँ कम। भले ही सौ खामियां हों लेकिन उसके जड़ कुछ ही बड़े कारक हैं। अगर गौर करें तो पाएंगे कि नैतिक मूल्यों का ह्वास, असीमित धनार्जन कि इच्छा और लोगों के रहन-सहन में भारी विषमता भ्रष्टाचार और बाहुबलिवाद (गुंडागर्दी) को जन्म देता है। किसी भी समाज या देश में अगर इन तीन कारकों को ख़त्म कर दें तो शायद भ्रष्टाचार पर भी लगाम लग सकता है, लेकिन यह तीनों कारक हमारे देश में पूर्णतया विद्यमान हैं। यह भ्रस्टाचार और इसका जड़ एक दूसरे को बढ़ावा देते हैं। क्या इसका अर्थ यह लगायें कि हमारे देश से यह जा ही नहीं पायेगा क्योंकि इसकी जड़ें इतनी मजबूत हो गयी हैं देश में? शायद नहीं। मुझे लगता है कि इसका निवारण है। लेकिन क्या स्वायात्याशासी जन लोकपाल के बन जाने से ही काम चल जायेगा? एक बार को मान भी लिया जाये, तो क्या हम इस बात को समझ सकते हैं कि आज भी देश में इतनी नीतियाँ होने के बावजूद भ्रष्टाचार क्यों बढ़ता चला जा रहा हैं? अगर भ्रष्टाचार को आज के परिपेक्ष्य में देखे तो इसका मतलब है कि सरकारी शक्ति, बाहुबल और पूँजी शक्ति के उपयोग से किसी के हक़ को मारना। बाहुबल और पूँजी शक्ति के दुष्प्रभावों को जनता के हित में सरकारी शक्ति से कुचला जा सकता है और आम आदमी हमेशा इसके पक्ष में रहेगा। लेकिन जब सरकारी शक्ति ही बाहुबल और पूँजी शक्ति को अपने हित के लिए बढ़ावा दे तो आम आदमी क्या करे? आम जनता तो निरीह है। उसके पास इसमें से कोई भी शक्ति नहीं है। बस ले दे कर एक ही शक्ति बचती है और वह है लोकतान्त्रिक अधिकार। अभी हम देख रहे हैं कि लोकतान्त्रिक अधिकारों का प्रयोग करते वक्त जनता के साथ क्या सलूक हो रहा है। सरकार कहती है कि अनशन करना सरकारी पद्धति के खिलाफ है और यह ब्लैकमेल है। अब तुम्ही बताओ भाई कि क्या तुम्हे ऐसे ही मनमानी करने के लिए छोड़ दिया जाये या फिर सही मायने में लोकतंत्र लाने के लिए क्रांति का बिगुल बजा दिया जाए। मेरी समझ में तो ऐसा ही होना चाहिए और इसका समय गया है। अगर ऐसा नहीं है तो इतने साल आजादी के बाद भी हमारी ८०% जनता क्यों गरीबी रेखा के नीचे जी रही है? कहीं तो कुछ गड़बड़ है भाई। या तो हमारा तंत्र सही नहीं है या फिर हम भारतीयों के जीन में ही कुछ गड़बड़ी है। दूसरी बात से सरोकार नहीं है क्योंकि हम ही हैं जो अपने भूत का इतना बखान करते हैं तो जीन में तो कोई खराबी नहीं। है तो बस तंत्र में। यह गड़बड़ी कहाँ है? हमारा संविधान ब्रिटिश इंडिया के संविधान से काफी प्रभावित है जिसमे जनता को गवर्न किया जाता था कि जनता अपने आप को गवर्न करती थी। इसकी वजह से सरकारी तंत्र जनता का नौकर होकर राजा बन गया। और राजा अपने खजाने और अपने मातहत कि रक्षा के लिए हमेशा तत्पर रहता है। पूरा का पूरा नौकरशाही और पुलिसिया राज जो हमें आज अपने देश में देखने को मिल रहा है इसी का नतीजा है। इसलिए आज का सबसे बड़ा सवाल है कि कैसे अपने पार्लियामेंट को, अपने पुलिस को और अपने नौकरशाहों को जनता के प्रति जबाबदेह बनायें। यह इतना आसान नहीं है। अपने कृत्यों के लिए किसी के प्रति जबाबदेह होना एक बहुत ही बड़ी जिम्मेदारी है। जो इतने सालों से इस जिम्मेदारी से बचते रहे है इतना जल्दी कैसे अपने आप को बंधने देंगे। जरूर इसका विरोध करेंगे और एन केन प्रकारेण अपने ऊपर जनता के द्वारा हो रहे अत्याचार को नेस्तनाबूद करने की कोशिश करेंगे। और इसके लिए उनके पास हर वह अधिकार और औजार हैं (संविधान के द्वारा दिया हुआ) जिसका वह इस्तेमाल करेंगे। इसका मतलब है की हम इन लोगों से आज के संवैधानिक तरीके से नहीं लड़ सकते। यही कारण है की आज सरकार और उसके नुमाइंदे बार बार कह रहे है कि अनशन करना, धरना देना और हमें मजबूर करना यह सब असंवैधानिक है। अरे यही तो क्रांति है। जब भी तंत्र फेल हो जाता है और सरकार फिर भी अपनी कुर्सी नहीं छोडनी चाहती है और इस बात को स्वीकार नहीं करती है तो जनता के पास और कोई चारा नहीं बचता है। हमारे देश में इस क्रांति का बिगुल बच चुका है और नयें तंत्र कि स्थापना के लिए लोगों के अन्दर आग लग चुकी है (ऐसा प्रतीत हो रहा है) बस हमें इस आग को तब तक बनाये रखना है जब तक हमारा देश एक नई रोशनी देख ले।

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