Saturday, February 12, 2022

संस्कार और उत्थान

संस्कार क्या है ? जब भी हम संस्कार की बात करते हैं तो मस्तिष्क में व्यवहार संस्कार, विवाह संस्कार, गर्भाधान संस्कार, अन्तेष्टि संस्कार इत्यादि आते हैं। इसका सीधा मतलब हम कर्मकाण्डों या रीति रिवाज़ों से समझते हैं। लेकिन क्या इसे ही संस्कार कहते हैं ? नहीं, बल्कि इन्हे मनुष्य की भावनात्मक शुद्धिकरण के लिए अपनाये गए अलग-अलग धार्मिक विधि कहते हैं। 'संस्कार' शब्द का मतलब 'शुद्धिकरण' तो होता है, परन्तु किसका शुद्धिकरण ?

अगर हम वेदांत के परिपेक्ष्य में समझें, तो हर जीव मरने के समय अपनी स्थूल शरीर तो छोड़ देती है पर उसकी मनःस्थिति और इस जीवन की यादें साथ रहती हैं और जीवित रहती हैं। देहावसान के पहले की उसकी मनःस्थिति और यादें, जो उसके कर्मों को प्रभावित करती थीं, उसे ही हम उस जीव का संस्कार कहते हैं। यह मनःस्थिति ही उसके चित्त और वृत्ति को परिभाषित परिभाषित करते हैं। आज के हमारे सभी कर्म इन्ही संस्कारों से व्यवस्थित होते हैं। जब आत्मा फिर से जन्म लेती है तो नवजात के अंदर उसके पूर्वजन्म के सभी संस्कार विद्यमान होते हैं। उदाहरणार्थ, दो जुड़वाँ बच्चे भी एक दूसरे से पूरी तरह भिन्न हो सकते हैं जबकि उनकी जन्म के पहले और तुरंत बाद की स्थितिओं में कोई भिन्नता नहीं  होती।  

जुड़वा नवजात जैसे-जैसे बड़े होते हैं सबसे पहले उनकी अपने माता-पिता के साथ परस्पर भावनात्मक आदान - प्रदान की प्रक्रिया शुरू होती है। अब माता - पिता तो दोनों बच्चों से समान व्यवहार करते हैं (ध्यान रखना, प्यार करना, पालन पोषण वग़ैरह) लेकिन बच्चे अपने - अपने संस्कारों (पूर्वजन्म के) से प्रभावित होकर उन्हें प्रतिक्रिया देते हैं। इस प्रतिक्रिया को माता - पिता अपने संस्कारों (इस जीवन में अब तक के विकसित संस्कार) के आधार पर वर्णित करते हैं और अपने समझ से प्रतिक्रिया देते हैं। उदाहरणार्थ, किसी बात पर एक का प्रतिक्रिया गुस्सा होता है तो दूसरा बहुत ही सहनशीलता दिखता है।  आखिर अंतर कहाँ है? एक जैसी दशाएँ, एक तरह का घर का माहौल, वही माता - पिता, वही घर; फिर इतना अंतर क्यों? 

हमारे जीवन में पारस्परिक क्रिया - प्रतिक्रिया का सिलसिला निरंतर चलता रहता है और सभी मनुष्य एक दूसके के संस्कारों को अपने प्रतिक्रियों से बनाते चलते हैं। घर में माता - पिता, भाई - बहन तथा अन्य पारिवारिक सदस्यों से शुरू होकर हमारे संस्कार बाहर की दुनिया से टक्कर लेने निकल पड़ते हैं और साथ - साथ अपने आपको क्रिया - प्रतिक्रिया के तहत परिष्कृत करते रहते हैं। भारतीय दर्शनानुसार, किसी व्यक्ति द्वारा किये गए सभी कार्य, उसके अभिप्राय और उसके कार्यफ़ल उस व्यक्ति के मन की गहराइयों में एक छाप छोड़ते हैं और यही छाप उसके संस्कारों को बनाते हैं, अर्थात, उसके आज तक के कार्य और कार्यफल के छाप के अंतर्गत ही वह अपने कल की प्रतिक्रिया को निर्धारित करता है। यह प्रक्रिया जीवन पर्यन्त चलती रहती है और हम अपने संस्कारों को इस जीवन रूपी रास्ते में बनाते चलते हैं। यही आज के संस्कार हमारे कल के कर्मो को निर्देशित करते हैं। 

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