Saturday, October 14, 2017

मनुस्मृति और जाति

जब से सामाजिक व्यवस्था की शुरुआत हुई तब से समाज चार स्तंभों पर खड़ा है, राजा, प्रजा, व्यापारी और ज्ञानी। राजा के पास समाज जनित अधिकार, सैनिक और बल था। व्यापारी अपने आर्थिक फायदे के लिये अपने लगन और धन से राज्य में जरूरत के चीजों का व्यापार करता था। ज्ञानी अपने बौद्धिक शक्ति और विवेक से राजा और व्यापारी को सामाजिक भलाई के लिए सही रास्ता दिखाता था और प्रजा में अधिकतर वह लोग होते थे जो अपनी शारीरिक मेहनत से राज्य को उसके अभीष्ट में सहायता करते थे। इन चारों स्तंभों का बराबर महत्व होता है। किसी भी स्तंभ में लोभ, कर्तव्यहीनता, घृणा, कर्महीनता और घमण्ड का प्रादुर्भाव होने से सामाजिक ताना-बाना बिगड़ने की आशंका होती है।  मेरे समझ से इसी आशंका को चरितार्थ न होने देने के लिए राजा के दरबार में एक राजगुरु हुआ करते थे जो राजा को हर मुश्किल घडी में सही राजनीतिक और बौद्धिक सलाह दिया करते थे। यह सलाह अमूमन मानव जनित दुर्गुणों से दूर होने पर आधारित होता था।  यह पूरी व्यवस्था समाज को सुचारू रूप से पोषित करने के लिए बनी थी। हर वर्ग को अपनी बुद्धिमत्ता और कर्मों के आधार पर अपने लिए रोटी का इंतज़ाम करना पड़ता था। इस पूरी व्यवस्था में हर वर्ग को अपनी अवस्था से संतुष्ट रहने की शिक्षा मिलती है। इसमें कोई दो राय नहीं कि ज्ञान, पराक्रम और परोपकारी सिद्धांत इस संसार में हमेशा सम्माननीय रहे हैं और  रहने भी चाहिए। 
मनुस्मृति में भी समाज को चार वर्णों में बांटा गया था, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। सभी का काम ऊपर वर्णित तरीके से ही बनाया गया था। यह विभाजन संभवतः किसी के जन्म देने वाले परिवार पर निर्भर नहीं था। बल्कि उसके अपने ज्ञान और गुणों के बल और उसके काबिलियत के आधार पर किये जाने वाले कार्य पर निर्भर करता था। इस पूरी व्यवस्था में शायद यह कहीं नहीं कहा गया कि एक ब्राह्मण का कार्य देखने वाले परिवार का कुल हमेशा ब्राह्मण का कार्य ही करेगा। क्योंकि ब्राह्मण का कार्य ज्ञान पर आधारित था, और जब भी एक मनुष्य,  भले ही वह किसी ब्राह्मण परिवार  से ही क्यों न हो, ज्ञानार्जन के द्वारा ब्रह्म कार्य के लिए काबिल न हो उसे ब्राह्मण नहीं माना जा सकता। ठीक इसी प्रकार एक शूद्र भी अपने कर्मो के बल से ज्ञानार्जन करके ब्रह्म कार्य कर सकता है और ब्राह्मण कहलाया जा सकता है। इसलिए वर्ण व्यवस्था किसी को कर्म के आधार पर जीवन में अग्रसर होने से नहीं रोकती।
यह तो रहीं निरा दार्शनिक बातें। लेकिन असल जीवन में अनेकानेक मनोवैज्ञानिक कारणों और मानव जनित प्रवृत्ति की वजह से मनुष्य अपने धन लोभ, झूठा सम्मान और पारिवारिक स्नेह के चलते उन तमाम सामाजिक सिद्धांतों को दरकिनार कर देता है और अपने वर्चश्व को बनाये रखने के लिए ऐसा खेल रचता है जिससे कि उसके मातहत कभी भी उसकी बराबरी में आकर खड़े न हो पाएं। यह तभी संभव है जब उसके मातहत को कर्म करने और ज्ञानार्जन का मौका ही न मिले। और शायद यही वह कारण है जो हमारे समाज में इतनी बड़ी साज़िश के तहत जाति और छुआछूत जैसे निन्दनीय प्रथाओं का प्रादुर्भाव हुआ। इसमें कोई शक नहीं कि भारतीय समाज पर सदियों की इस त्रासदी से पूरा सामाजिक ख़ाका छिन्न-भिन्न हो गया है। आज के समय में इन प्रथाओं का समाज में विद्यमान होना हमेशा एक ही ओर इंगित करता है - हम आज भी मानव जनित प्रवृत्ति को अपने समाज में परोपकारी सिद्धांतों से बहुत ऊपर रखते हैं। जब तक हम सब एक दूसरे को अपना पूरक नहीं समझेंगे यह समाज आगे नहीं जायेगा। हमें समझाना होगा कि हमारा सच्चा उत्थान केवल हमसे नहीं  बल्कि उन सबके साथ होगा। इसलिए हमें बस इतना करना है कि किसी को भी देश में ज्ञानार्जन और अच्छे कर्म करके सम्मान पाने में कोई रूकावट न आये।   
सदियों से पुख्ता हुए इस भ्रष्ट आचार को जड़ से उखाड़ने के लिए कुछ तो समय देना पड़ेगा।  लेकिन क्या हमें इसे बस समय पर छोड़ देना चाहिए? नहीं, मैं उन सभी जन प्रतिनिधियों से आग्रह करना चाहूँगा कि बस अब से आपके किसी भी भाषण में जाति का उद्घोष न हो। अब आप हमेशा बोलिये कि हम सब एक हैं और हमारी भिन्नता बस हमारी दशाओं में है, हमें ऊंच-नीच दशाएँ नहीं बल्कि हमारे गुण और दोष बनाते हैं। इन दशाओं को हम सब मिलकर अपने कर्मो से बदलेंगे।अगर हर जन प्रतिनिधि जनता में ऐसी बातें करने लगे तो जरूर समय के साथ यह एक सच्चाई में तब्दील हो जाएगी।
हमारे शहर में मैं देखता हूँ कि आये दिन एक नया समाज खड़ा हो रहा है। हर समाज की एक अलग पहचान बन रही है और इस समाज से उपजे प्रतिनिधि जन प्रतिनिधि के रूप में उभर रहे हैं जो आने वाले दिनों में शायद हमारे विधानसभा और लोकसभा की ओर भी रुख करें। अगर जन प्रतिनिधि विभाजन के बल पर हमारे कर्णधार बन रहे हैं तो इसमें दोषी हम हैं वह तो बस अपने मानव प्रवृत्ति को चरितार्थ करने में लगे हुए हैं।
इसके साथ मैं सभी माता-पिता से भी गुजारिश करना चाहूंगा कि अगर अपने बच्चों का भविष्य अच्छा देखना चाहते हैं तो कृपा करके उन्हें जाति जैसी भ्रामक धारणा के चक्कर में न उलझाएं। अलग-अलग हम कहीं नहीं पहुँच पायेंगे।  

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