सड़क दुर्घटना
16.06.2016
कल ही मैंने अपने ब्लाग पर जमशेदपुर में जनता के अन्दर
असहनशीलता के बढ़ने के बारे में लिखा था और आज मुझे ख़ुद उसका शिकार होना पड़ा।
आज मैं लेबाॅरेटरी से शाम को आठ बजे के क़रीब घर लौट रहा
था। हमेशा उसी रास्ते से आता-जाता हूँ। उस सड़क पर यातायात की तीव्रता की पहचान है, लोग किस तरह से चल सकते हैं उसका एहसास है और
हमें कैसे चलना है उसका अनुभव है। लेकिन आज उस मोड़ पर १-२ किमी प्रति घंटा की रफ़्तार
पर भी एक दुर्घटना हो गई। २०-३० किमी प्रति घंटा से चलने वाली एसयूवी के मालिक ने
मुझे दोषी ठहराया कि मैंने उनकी एकदम नयी (शोरूम से निकली हुई) गाड़ी को धक्का मार
दिया। जबकि उन्हें यह भी एहसास नहीं था कि जब मैं भीड़ भरे रास्ते पर मुड़ने की
कोशिश कर रहा था उनकी नज़र रास्ते पर नहीं थी। ख़ैर, यह तो महज़ एक दुर्घटना थी और क्षति दोनों की हुई। लेकिन
जैसा कि हम जानते है आजकल लोग मनुष्य से ज़्यादा निरजीव गाड़ियों को तरजीह देते है
और उस पर खरोंच लगने से उनकी आत्मा तार-तार हो जाती है और वे आग बबूला हो जाते
हैं। वही आज सरदार जी (एसयूवी मालिक) के साथ भी हुआ, जबकि मेरी गाड़ी ज़्यादा क्षतिग्रस्त थी। वे गाड़ी से उतरे और
ग़ुस्से में मेरे गाड़ी के पास आए, गाड़ी की चाबी निकाली, मेरे ऊपर हाथ उठाने की कोशिश की और चाबी लेकर
चले गये। साथ में बोलते रहे "मुझे जानते नहीं मैं कौन हूँ और क्या कर सकता
हूँ"। उनका व्यवहार देखकर तो वैसे भी उन्हें जानने की इच्छा ख़त्म हो गयी थी
और ऐसे लोग दूसरों को हानि पहुँचाने के अलावा कर भी क्या सकते हैं। भलाई करने वाले
तो चुपके से कर जाते हैं।
उसके बाद सड़क पर भीड़ लग गयी, पुलिस भी आ गयी। सरदार जी मुआवज़े की माँग करने लगे। लेकिन
यहाँ कौन न्याय करेगा कि ग़लती किसकी थी और मुआवज़ा किसको मिलना चाहिए। क्या सरदार
जी ने अपनी गाड़ी के अलावा अपनी ड्राइविंग देखने की कोशिश की, नहीं। वह तो शायद सामने देख भी नहीं रहे थे,
एकाएक जब उन्होंने देखा तो गाड़ी हल्की बाएं लिए लेकिन इसमें टक्कर नहीं बच
पाई। क्या पुलिस ने मेरी बात सुननी चाही, नहीं। जिसने चिल्लाया, हाथ उठाने की कोशिश की, गाड़ी की चाबी निकालने की हिम्मत की उसकी ग़लती तो हो ही
नहीं सकती। जबकि बेतरतीब गाड़ी चलाने की आशा ऐसे ही मिज़ाज वालों से की जा सकती है।
लेकिन पुलिस ने भी उसी का साथ दिया जिसने उदंडता दिखायी। पुलिस ने मुझसे नहीं
बल्कि सरदार जी से पूछा "आपस में सुलह कर लेंगे ना, जो गाड़ी बनाने का ख़र्चा है ले लीजिए
इनसे"। भीड़ में कुछ लोगों ने यह भी परामर्श दिया, और शायद सही ही दिया, कि क्यों पुलिस के चक्कर में पड़ेंगे पैसा भी लेगा
और इधर-उधर घूमाएगा भी। मैंने सरदार जी को अपना मोबाइल नम्बर दिया और उन्हें
आश्वस्त किया कि वो गाड़ी बनवाने के बाद मुझे बिल देंगे तो मैं उतनी राशि उन्हें दे
दूँगा। लेकिन उनको यह कौन बतायेगा कि उनके द्वारा सरेआम हाथ उठाने से और उसके साथ मेरा चश्मा टूटने से मुझे जो क्षति पहुंची उसका मुआवजा कौन देगा। हाथ उठाना तो दुर्घटना का भाग नहीं था। यह तो बस एक मनुष्य का दुर्व्यवहार था।
इस भीड़ तंत्र के न्याय से मैं आहत नहीं था क्योंकि भीड़ की
यही नियति होती है कि वह करती पहले है सोचने समझने की बात बाद में करती है।लेकिन आज
की घटना ने मुझे यह सोचने पर मजबूर जरूर किया कि जनता के इस तरह
के व्यवहार से क्या देश के अच्छे दिन आ पायेंगे।
28.06.2016
ऊपर दिए गये घटना के क़रीब सात दिन बाद सरदार जी ने फ़ोन किया कि उनकी गाड़ी बन गयी है और मुझे ८००० रूपए देने है। चूँकि मैं शहर सेबाहर जा रहा था अत: उन्हें मैंने पाँच दिन बाद अपने कार्यालय में बुलाया। मुझे एहसास था कि मेरे द्वारा इस देरी को शायद वह अन्यथा ले लेगेंलेकिन मुझे तो जाना ही था।
आख़िर १२ दिन के बाद, मेरी उपसथिति सुनिश्चित करने के बाद, वह मेरे कार्यालय के मुख्य द्वार पर हाज़िर हुए। मैंने ८००० रूपए का अकाउंटपेयी चेक (उनके किसी कर्मी के नाम से; वह ख़ुद अपने नाम में नहीं चाहते थे) किसी के हाथों उनके पास भिजवाया और साथ में अपने उपर्युक्त ब्लागका URL भी एक पेपर पर लिख कर भेज दिया, पढ़ने के निवेदन के साथ।
क़रीब १० मिनट के बाद उनका फिर फ़ोन आया और उन्होंने कहा, "जिसको भेजा था उसे फिर भेजिए मुझे कुछ काग़ज़ात देने हैं"। मैंने कहा कि मुझेआपसे कोई काग़ज़ात नहीं चाहिए आप चेक लेकर जा सकते हैं। लेकिन उन्होंने फिर अपनी बात दुहराई और इसलिए मैं ख़ुद द्वार पर गया।
वह अपनी उसी एसयूवी से निकले और बोले,"सर, आप जैसे जेनटिलमैन से मैं यह चेक नहीं ले सकता। अभी तक मैंने ऐसा आदमी नहीं देखा"। मैंनेबोला कि आपका पैसा ख़र्च हुआ है तो आपको लेना ही चाहिए।लेकिन अन्ततः उन्होंने चेक लौटा दिया। बात पैसे की नहीं थी, बल्कि उस एहसास कीथी जो सरदार जी के अन्दर पनपी थी, उनके इस एहसास से मुझे अपार हर्ष की अनुभूति हुई, मैंने उन्हें गले लगाकर विदा किया।
आज मेरे अनुभव में एक और अध्याय जुड़ा। इस दुनिया या आज के परिवेश में सहनशीलता और सरल व्यवहार भले ही आर्थिक और शारीरिक कष्ट दे सकते हैं, लेकिन किसी की सैदधांतिक रूप से परिपक्व नैसर्गिक चेतना को धूमिल नहीं कर सकते। हर मनुष्य सहज चेतना पूर्ण है और इसचेतना को जागने के लिए सरल, सहनशील, भेद-भाव रहित सामाजिक वातावरण की ज़रूरत है। सरदार जी के अन्दर की सहज चेतना ने बाहर आकरउनके व्यवहार में अजब सी मिठास घोल दी।

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