कशमकश
श्रीवास्तव जी अनायास ही आज बेचैनी से घिर गए। बड़ी बेटी वैष्णवी जवानी की दहलीज़ पर कदम रख रही थी और अब शिक्षा की तलाश में उसे घर के सुरक्षित चारदीवारी को छोड़कर जंगलरुपी निर्मम प्रतियोगी दुनिया से लोहा लेने उतरना पड़ेगा। उधर छोटी बेटी अनाहिता बस कहने को ही छोटी रह गयी थी, उसका शारीरिक उत्थान और श्रीवास्तव जी की माली हालत हमेशा एक दूसरे को मुँह चिढ़ाते। उनकी बेचैनी का कारण बस एक ही था, या तो अपने दोनों बच्चों को अच्छी शिक्षा दें या फिर उनकी शादी के लिए कुछ धन जुटा कर रखें। अपनी छोटी सी तनख्वाह को देखते हुए वह समझ गए थे कि बेटियों की शिक्षा और शादी दोनों में उन्हें एक चुनना पड़ेगा। जब भी बच्चियों के मुँह देखते, उनके जेहन में दो समानांतर भावनाएँ उद्धृत होती थीं, 'प्रसन्नता' कि बच्चे चरित्र और शिक्षा में अव्वल थे परन्तु 'क्षोभ' कि दहेज़ के दानव के दमन लिए वे अपने आप को असमर्थ पाते थे।
उस दिन वैष्णवी ने घर में कदम रखते ही कहा, " बाबू जी! आज मैंने विश्वविद्यालय की बी.ए. की परीक्षा अव्वल दर्जे में उत्तीर्ण कर ली है"। श्रीवास्तव जी ने दोनों बेटियों को इस तरह बाहों में भर लिया जैसे उनकी सारी संपत्ति, भावनाएँ या कहें सारा संसार उन्हीं दोनों में समायें हों। उस दिन तीनों मिलकर उस दिवंगत गृहणी, जिसे इस दिन का हमेशा इंतज़ार रहा था, की दीवार पर टंगी तस्वीर के सामने आकर खड़े हो गए और उनके आँखों से अविरल अश्रु-धारा बह निकली। यह उस पत्नी और माँ के लिए एक भाव भीनी श्रद्धांजलि थी।
श्रीवास्तव जी एक सरकारी दफ़्तर में वरिष्ठ लिपिक के पद पर पिछले दस सालों से विद्यमान थे। उनका बचपन एक निम्न आय परिवार में बीता था। उनके पिता एक माध्यमिक विद्यालय में अध्यापक थे और अपनी सभी जिम्मेदारिओं को निभाने के बाद परिवार के लिए इतना ही ला पाते थे कि बस दो जून की रोटी मिल सके। श्रीवास्तव जी के कुल छः भाई-बहन थे। पारिवारिक कठिनाइयां सभी बच्चों को एक प्रकार से दृढ़ और तटस्थ बना चुकी थीं, जो उन्हें हमेशा उन कठिनाईओं से जूझने और कर्म के बल पर आगे के मार्ग को प्रशस्त करने के लिए प्रेरित करती थीं। यहीं से श्रीवास्तव जी शाश्वत जीवन दर्शन और निर्मम ईमानदारी का पाठ पढ़े थे।
श्रीवास्तव जी दफ़्तर में अपने काम के प्रति सजग थे। शायद उन्हें जनता के प्रति अपनी जबाबदेही का भान था और इसके साथ ही यह भी जानते थे कि जनता की भलाई में ही उनका और पूरे देश का उत्थान निहित है। वे श्रीमद्भगवद गीता के कट्टर अनुयायी थे। उनका विश्वास था कि श्रीमद्भगवद गीता के अट्ठारह अध्यायों में श्री कृष्ण द्वारा दिए गए ज्ञान का एक अंश भी अपने इस जीवन में उतार पाएं तो यह जीवन सफल हो जायेगा। इसी विश्वास को उन्होंने अपने बच्चों में भी जगाया था। उस पूरे परिवार को यही दो सूक्ति निर्देशित करती थी "कर्म हमारा, कर्मफ़ल परमात्मा का" और "अपने इन्द्रियों के सुख के लिए की गयी कोई क्रिया कर्म है ही नहीं" । उनका यही विश्वास उनके कशमकश का कारण था। जिसमें दूसरों के उत्थान के सिद्धांत के प्रति दृढ़ता हो उसमें, आज के भ्रस्ट, भोगी और उन्मादी समाज में, कशमकश तो होना ही है। क्योंकि समाज से परे तो बस परमात्मा ही रह सकता है, मनुष्य को तो समाज के साथ चलना ही पड़ेगा।
उस दिन श्रीवास्तव जी दफ़्तर में किसी संचिका में ध्यानमग्न थे, तभी उनका एक सहकर्मी एक ठेकेदार के साथ अवतरित हुआ और बोला "श्रीवास्तव जी ! साहब ने निर्देश दिया है कि इनकी संचिका अविलम्ब स्वीकृति के लिए अनुमोदित करके अग्रेसित की जाये"। श्रीवास्तव जी ने कहा "लेकिन इनकी संचिका के कागज़ात तो स्वीकार्य नहीं है। उनमें कई त्रुटियाँ विद्यमान हैं"। सहकर्मी ने खीझते हुए कहा "अरे आपको कितना चाहिए यह बताइये। ये साहब इतने दूर से आये हैं इन्हें क्यों परेशान कर रहे हैं"। श्रीवास्तव जी बात समझे और सीधा अपने साहब के कमरे में जाने के लिए उठ खड़े हुए। लेकिन यह क्या, साहब ने भी वही बात दुहरायी। लेकिन श्रीवास्तव जी तो अपने गीता के सिद्धांत से बंधे थे। उस संचिका को अनुमोदित करके वह जनता को धोखा नहीं दे सकते। इसी समय उन्हें अपने बच्चों के चेहरे सपने की तरह सामने दिखाई दिए, उन्होंने देखा कि उनकी दोनों लड़कियां चालीस पार कर गयीं हैं और अभी तक उनका विवाह नहीं हो पाया है। अपने बच्चों के प्रति प्यार, उनकी जम्मेदारी, उनकी अनुपस्थिति में उनका जीवन सब कुछ (सभी मानव जनित भावनाएं) आज श्रीवास्तव जी के सिद्धांतों के सामने भाले और बरछे लेकर खड़ी थीं। लेकिन श्रीवास्तव जी के सिद्धांत का तीर इतना मज़बूत था की सभी भाले और बरछे धराशायी हो गए। साहब भी इन सिद्धांतों के आगे नतमस्तक थे लेकिन श्रीवास्तव जी का तबादला उन्हें करना ही पड़ा।
श्रीवास्तव जी को सरकार प्रदत्त तनख्वाह के अलावा कुछ स्वीकार्य न था। समय बीता। बच्चे बड़े हुए, अच्छी शिक्षा पाए, पढ़ाई में हमेशा अव्वल रहे और उनके चरित्र निर्माण में तो कोई कमी थी ही नहीं। बच्चे कहीं भी अच्छी तनख्वाह में नौकरी ले सकते थे लेकिन उन्हें तो अध्यापन का कार्य सबसे रुचिकर था। जब बच्चे कहते कि चरित्र और विद्या में पारंगत होने के बाद सबसे अच्छा कार्य तो अध्यापन ही है, तो श्रीवास्तव जी फूले नहीं समाते थे। लेकिन कसक बस इतनी थी कि इस सोच को क्या हमारा समाज समझ सकेगा। वहां तो भोग-विलास, धन, सत्ता और बाहुबल ही सम्माननीय हो गए हैं। लेकिन फिर उन्हें गीता सिद्धांत याद आते और कहते कि तुम्हारे विवेक से तुम्हें जो रुचिकर लगे वही करो, इस द्विभाषी समाज की फिक्र मत करो।
दोनों बेटियों के विवाह की मंशा लिए श्रीवास्तव जी ने बहुत जगह चर्चा चलायी, लेकिन पुत्रियों के लिए योग्य वर मिलने पर दहेज़ देने की असमर्थता आड़े आती थी। बाक़ी पुरुषों से विवाह करने से, जहाँ दहेज़ की मात्रा थोड़ी कम होती, पुत्रियों के वज़ूद और भावनाओं के साथ खिलवाड़ होता। ऐसे करते करते लड़कियां चालीस पार गयीं और यह विश्वास हो गया कि वर पक्ष में योग्यता और सिद्धांत दोनों मिलना बहुत मुश्किल है। इसी बीच एक दिन अचानक श्रीवास्तव जी के सीने में दर्द उठा और आनन - फानन में वह स्वर्ग सिधार गए। जाते-जाते उन्होंने दोनों पुत्रियों से कहा "मनुष्य द्वारा गढ़े हुए अप्राकृतिक रिवाज़ों की जन्मदात्री लालच है, इन रिवाजों से परे नैसर्गिक या प्रकृति प्रदत्त अधिकार खुद से हासिल करना पड़ता है। तुम अविवाहित रहकर दहेज़ के दानव के प्रतिकार का बीणा उठाओ। यही तुम्हारी नियति है"।
श्रीवास्तव जी दफ़्तर में अपने काम के प्रति सजग थे। शायद उन्हें जनता के प्रति अपनी जबाबदेही का भान था और इसके साथ ही यह भी जानते थे कि जनता की भलाई में ही उनका और पूरे देश का उत्थान निहित है। वे श्रीमद्भगवद गीता के कट्टर अनुयायी थे। उनका विश्वास था कि श्रीमद्भगवद गीता के अट्ठारह अध्यायों में श्री कृष्ण द्वारा दिए गए ज्ञान का एक अंश भी अपने इस जीवन में उतार पाएं तो यह जीवन सफल हो जायेगा। इसी विश्वास को उन्होंने अपने बच्चों में भी जगाया था। उस पूरे परिवार को यही दो सूक्ति निर्देशित करती थी "कर्म हमारा, कर्मफ़ल परमात्मा का" और "अपने इन्द्रियों के सुख के लिए की गयी कोई क्रिया कर्म है ही नहीं" । उनका यही विश्वास उनके कशमकश का कारण था। जिसमें दूसरों के उत्थान के सिद्धांत के प्रति दृढ़ता हो उसमें, आज के भ्रस्ट, भोगी और उन्मादी समाज में, कशमकश तो होना ही है। क्योंकि समाज से परे तो बस परमात्मा ही रह सकता है, मनुष्य को तो समाज के साथ चलना ही पड़ेगा।
उस दिन श्रीवास्तव जी दफ़्तर में किसी संचिका में ध्यानमग्न थे, तभी उनका एक सहकर्मी एक ठेकेदार के साथ अवतरित हुआ और बोला "श्रीवास्तव जी ! साहब ने निर्देश दिया है कि इनकी संचिका अविलम्ब स्वीकृति के लिए अनुमोदित करके अग्रेसित की जाये"। श्रीवास्तव जी ने कहा "लेकिन इनकी संचिका के कागज़ात तो स्वीकार्य नहीं है। उनमें कई त्रुटियाँ विद्यमान हैं"। सहकर्मी ने खीझते हुए कहा "अरे आपको कितना चाहिए यह बताइये। ये साहब इतने दूर से आये हैं इन्हें क्यों परेशान कर रहे हैं"। श्रीवास्तव जी बात समझे और सीधा अपने साहब के कमरे में जाने के लिए उठ खड़े हुए। लेकिन यह क्या, साहब ने भी वही बात दुहरायी। लेकिन श्रीवास्तव जी तो अपने गीता के सिद्धांत से बंधे थे। उस संचिका को अनुमोदित करके वह जनता को धोखा नहीं दे सकते। इसी समय उन्हें अपने बच्चों के चेहरे सपने की तरह सामने दिखाई दिए, उन्होंने देखा कि उनकी दोनों लड़कियां चालीस पार कर गयीं हैं और अभी तक उनका विवाह नहीं हो पाया है। अपने बच्चों के प्रति प्यार, उनकी जम्मेदारी, उनकी अनुपस्थिति में उनका जीवन सब कुछ (सभी मानव जनित भावनाएं) आज श्रीवास्तव जी के सिद्धांतों के सामने भाले और बरछे लेकर खड़ी थीं। लेकिन श्रीवास्तव जी के सिद्धांत का तीर इतना मज़बूत था की सभी भाले और बरछे धराशायी हो गए। साहब भी इन सिद्धांतों के आगे नतमस्तक थे लेकिन श्रीवास्तव जी का तबादला उन्हें करना ही पड़ा।
श्रीवास्तव जी को सरकार प्रदत्त तनख्वाह के अलावा कुछ स्वीकार्य न था। समय बीता। बच्चे बड़े हुए, अच्छी शिक्षा पाए, पढ़ाई में हमेशा अव्वल रहे और उनके चरित्र निर्माण में तो कोई कमी थी ही नहीं। बच्चे कहीं भी अच्छी तनख्वाह में नौकरी ले सकते थे लेकिन उन्हें तो अध्यापन का कार्य सबसे रुचिकर था। जब बच्चे कहते कि चरित्र और विद्या में पारंगत होने के बाद सबसे अच्छा कार्य तो अध्यापन ही है, तो श्रीवास्तव जी फूले नहीं समाते थे। लेकिन कसक बस इतनी थी कि इस सोच को क्या हमारा समाज समझ सकेगा। वहां तो भोग-विलास, धन, सत्ता और बाहुबल ही सम्माननीय हो गए हैं। लेकिन फिर उन्हें गीता सिद्धांत याद आते और कहते कि तुम्हारे विवेक से तुम्हें जो रुचिकर लगे वही करो, इस द्विभाषी समाज की फिक्र मत करो।
दोनों बेटियों के विवाह की मंशा लिए श्रीवास्तव जी ने बहुत जगह चर्चा चलायी, लेकिन पुत्रियों के लिए योग्य वर मिलने पर दहेज़ देने की असमर्थता आड़े आती थी। बाक़ी पुरुषों से विवाह करने से, जहाँ दहेज़ की मात्रा थोड़ी कम होती, पुत्रियों के वज़ूद और भावनाओं के साथ खिलवाड़ होता। ऐसे करते करते लड़कियां चालीस पार गयीं और यह विश्वास हो गया कि वर पक्ष में योग्यता और सिद्धांत दोनों मिलना बहुत मुश्किल है। इसी बीच एक दिन अचानक श्रीवास्तव जी के सीने में दर्द उठा और आनन - फानन में वह स्वर्ग सिधार गए। जाते-जाते उन्होंने दोनों पुत्रियों से कहा "मनुष्य द्वारा गढ़े हुए अप्राकृतिक रिवाज़ों की जन्मदात्री लालच है, इन रिवाजों से परे नैसर्गिक या प्रकृति प्रदत्त अधिकार खुद से हासिल करना पड़ता है। तुम अविवाहित रहकर दहेज़ के दानव के प्रतिकार का बीणा उठाओ। यही तुम्हारी नियति है"।

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