Thoughts from 2015
- Can a feudal society be a part of a truly democratic system?? I think these are based on opposite principles.
- A person is always a slave of the past. His/her knowledge and experience, through interaction and observation, with time gives birth to his/her way of thinking. Therefore, time is the psychological enemy of mankind in achieving the freedon, which is pure observation without direction, without fear of punishment and without aspiration for rewards.
- The mankind would be benefitted at large if a case is made to move from 'Materialising the spirituality' to 'Spiritualising the materialism'.
- The ultimate aim of a life is to transform from duality of existence to oneness.
- It is good to live your dreams. But we should remember that dreams are the outcome of our experience, according to Sigmund Freud. Therefore, dreams need to be analysed too, So as the experience and circumstances. Definitely an esoteric task.
- A good teaching gets us the ability to think, question and contemplate. Without this, we will continue to function on autopilot, and allow those in power to continue to dominate, oppress and enslave us in every way.
- Learned in childhood that Cinema shows the true mirror image of a society. Off late, I had to correct myself that it was not the Cinema but the people on roads (Read traffic sense) who give clearer image of the society we live in, local or national.
- It's strange. Those who want their children to be taught by world class school teachers, supposedly should be possessing all the qualities, do not want their own children to become a teacher. Why???????
There lies the crux of our education system. A positively considered answer to this question is the key how our system should revamp itself. Who is going to bell the cat for this change? Make teaching a profession sought after by brilliant of brilliants and see the change. It is the responsibility of the public to fund themselves, through government, for best quality of schooling at primary and secondary level.
मुझे लगता है कि जब हम बच्चों को पास देने की इच्छा रखते हैं तो हमें हमारे बच्चे याद रहते हैं। लेकिन जब हम सड़क पर होते हैंतो हम सिर्फ़ अपनी मंज़िल देखते हैं। हम भूल जाते हैं कि सामने वाला बच्चा भी उसके माँ बाप का उतना ही प्यारा है जितना हमारे हमको।
यह छोटे बच्चे आज के समाज के उनके प्रति रवैये को देखकर ही भविष्य के समाज की रचना करेंगे। इसलिए सभी बच्चों के साथ आज का हमारा अच्छा व्यवहार कल के लिए एक सुदृढ़ समाज के गढ़ने के समान है।
- A person is always a slave of the past. His/her knowledge and experience, through interaction and observation, with time gives birth to his/her way of thinking. Therefore, time is the psychological enemy of mankind in achieving the freedon, which is pure observation without direction, without fear of punishment and without aspiration for rewards.
- The mankind would be benefitted at large if a case is made to move from 'Materialising the spirituality' to 'Spiritualising the materialism'.
- The ultimate aim of a life is to transform from duality of existence to oneness.
- It is good to live your dreams. But we should remember that dreams are the outcome of our experience, according to Sigmund Freud. Therefore, dreams need to be analysed too, So as the experience and circumstances. Definitely an esoteric task.
- A good teaching gets us the ability to think, question and contemplate. Without this, we will continue to function on autopilot, and allow those in power to continue to dominate, oppress and enslave us in every way.
- Learned in childhood that Cinema shows the true mirror image of a society. Off late, I had to correct myself that it was not the Cinema but the people on roads (Read traffic sense) who give clearer image of the society we live in, local or national.
- It's strange. Those who want their children to be taught by world class school teachers, supposedly should be possessing all the qualities, do not want their own children to become a teacher. Why???????
There lies the crux of our education system. A positively considered answer to this question is the key how our system should revamp itself. Who is going to bell the cat for this change? Make teaching a profession sought after by brilliant of brilliants and see the change. It is the responsibility of the public to fund themselves, through government, for best quality of schooling at primary and secondary level.
- आज हमने अपने परम प्रिय वैज्ञानिक, शिक्षक आैर प्रेरणास्रोत को खो दिया है। हमेशा सोचता था कि ऐसी महान आत्मा और इतनी विनम्रता दोनों एक साथ, ख़ासकर आज के परिवेश में, कैसे आ सकती हैं। इनमें सामंजस्य बैठाने वाला अपनी ज़िन्दगी में अपने अन्दर कितना धैर्य, स्थायितव, साहस, तटस्थता, अनाशक्ति और निडरता का विकास किया होगा। डा॰ कलाम के इन कोशिशों और कर्मों से उसको सिद्ध करने की उपलब्धि को मेरा शतत नमन। भगवान उनकी आत्मा को सदैव शान्ति प्रदान करें।
- आज हर मुँह से एक ही बात सुनने को मिलती है, "समाज जाने कौन सी दिशा में जा रहा है"। हममें जो बोया है वही काट रहे हैं और अब जो बीज बोयेंगे १६-१८ साल बाद वही फ़सल काटेंगें। अगर हमें अच्छी फ़सल चाहिए तो हमें अभी से अपने बच्चों के कोमल दिमाग़ में चरित्र रूपी बीज और अच्छी आदतों की खाद डालनी पड़ेगी। अगर बच्चे हमें हमसे प्यारे हैं तो हम ज़रूर उनके लिए आने वाले समय में अच्छे वातावरण की कामना करेंगे। यह बात भी ठीक तरह से समझनी चाहिए कि अच्छा समाज बस तेज़ गणना करने, विद्यालय में अव्वल आने, प्रतियोगिता में सबसे आगे रहने, माँ-पिता का नाम रोशन करने इत्यादि से नहीं बल्कि इन सब के साथ-साथ भावनात्मक और चारित्रिक रूप से परिपक्व होने से बनता है।
- Slightest inclination to test someone or being tested blocks your mind. Best way to learn is to satisfy your curiosity.
- शिक्षा से भविष्य की पीढ़ियों का चरित्र निर्माण तभी सम्भव है जब वर्तमान व्यवस्था के चरित्र पूरी तरह बदल जाएँ ।
- अधिकतर प्रयोगशाला जाते समय रास्ते में दो तीन स्कूल पड़ते हैं। छोटे छोटे बच्चे सड़क पार करने की कोशिश करते हैं। लेकिन भीड़ भरी सड़क उनको बहुत तकलीफ़ देती है। हर राहगीर जल्दी में होता है। कोई भी बच्चों को पास देने के लिए नहीं रुकता। इस बात को ध्यान में रखते हुए मैंने क़रीब २०-२५ लोगों से बात किया और उनका राय लिया।
हर शख़्स कहता है कि हमें बच्चों के लिए रुकना चाहिए। लेकिन मैंने अभी तक किसी को रुकते नहीं देखा। ऐसा क्यों है कि कहते सब हैं लेकिन करते बिरले हैं।मुझे लगता है कि जब हम बच्चों को पास देने की इच्छा रखते हैं तो हमें हमारे बच्चे याद रहते हैं। लेकिन जब हम सड़क पर होते हैंतो हम सिर्फ़ अपनी मंज़िल देखते हैं। हम भूल जाते हैं कि सामने वाला बच्चा भी उसके माँ बाप का उतना ही प्यारा है जितना हमारे हमको।
यह छोटे बच्चे आज के समाज के उनके प्रति रवैये को देखकर ही भविष्य के समाज की रचना करेंगे। इसलिए सभी बच्चों के साथ आज का हमारा अच्छा व्यवहार कल के लिए एक सुदृढ़ समाज के गढ़ने के समान है।
- जब सरकारी कार्यालय, साफटवेर उदयोग और बहुत से संस्थान ५ दिन सप्ताह काम करते हैं, बहुत से स्कूल बोर्ड ५ दिन सप्ताह काम करते हैं तो देश के कुछ बच्चे ६ दिन क्यों स्कूल जायें? क्या हम उनको अपनी जिज्ञासा को पूरी करने और उनकी बाल्य सुलभ क्रियाओं के लिए उनकी ही ज़िन्दगी से समय नहीं दे सकते?
सरकार को देश के सभी स्कूलों को ५ दिन सप्ताह कर देना चाहिए । ख़ासकर, कक्षा ८ तक तो होना ही चाहिए ।
- पाठशाला में नैतिक शिक्षा, जो प्रायः ख़त्म होती जा रही है, केवल विद्यार्थी को जड़वत अच्छाई और बुराई का भेद बताते हैं । परन्तु चारित्रिक शिक्षा या चरित्र निर्माण, जो मूलतः पारिवारिक परिवेश से आता है, विद्यार्थी को अच्छाई बरक़रार रखने के रास्ते में आने वाली कठिनाइयों को आत्मसात करना सिखाता है ।आज देश को पैसे से कहीं ज़्यादा अपने युवाओं के चरित्र निर्माण की ज़रूरत है जो हमारे नौनिहालों से शुरु होती है । चरित्र निर्माण से लालसा रहित कर्मठता पैदा होती है जो देश की आर्थिक समृद्धि और मानव मूल्यों की रक्षा में सहायक होगा ।
- ग़ुस्सा और हिंसा भय का आवरण है, लालसा रहित स्वच्छन्द और निर्भय जीवन ही समाज कल्याण की ओर हमारा योगदान है ।
- Impression, Confidence and Vision. Up to now I believed that if a person was confident and had vision, he should be impressive to us. But today I understood from the statement of the ex-CM that I was wrong. A premier should be confident and visionary, impression takes the third position for a Nation's development.
- 'Positive thinking' is not being overconfident and accept everything without raising a question on the success. But it is to look at something extremely negatively, see the worst and at the same time gear up to take up the challenge.
- एक दसवीं का छात्र एक दिन विद्यालय में अनुपस्थित था और इस वजह से उसे अध्यापक को आवेदन देकर एक दिन की छुट्टी की मांग करनी पड़ी। उसने लिखा की उस दिन ज्यादा देर तक सोने की वजह से देर हो गयी और वह देर से विद्यालय आने के बजाय घर पर ही रहना सही समझा। जब आवेदन प्रधानाचार्य के पास पहुंचा तो उन्हें इस कारण को स्वीकार करने में दुविधा हुई। क्योंकि प्रधानचार्य ने ऐसा कारण कभी देखा ही नहीं या शायद कोई ईमानदारी से लिखा ही नहीं। अतः उन्होंने शिक्षक को कहा जी उस छात्र से बोलिए की यह कारण स्वीकार्य नहीं है इसलिए उसे लिखना पड़ेगा की उसकी तबियत ख़राब हो गयी इसलिए वह नहीं आ सका। छात्र ने ऐसा ही किया और साथ में विद्यालय के प्रधानाचार्य से यह भी सन्देश लिया कि सच्चाई से कही हुई बात हमेशा स्वीकार्य नहीं होती। इस सन्देश के जड़ में क्या है?
एक प्रधानाचार्य जैसे पद की नियुक्ति के समय इस बात का ध्यान रखा जाता है की वह शिक्षित है और विवेकशील है। लेकिन उसको नियमो और शर्तो में इस कदर बाँध दिया जाता है कि वह अपने विवेक का उपयोग न करके उसी ढर्रे पर चलना सीख लेता है जैसा हमेशा से होता आया है। यह दशा अमूमन देश के हर दफ्तर में मौजूद है।
क्या छात्र के दिए हुए कारण को स्वीकार करते हुए उसे दोबारा ऐसा न होने की हिदायत देकर छोड़ा नहीं जा सकता था ? कम से कम एक गलत सन्देश जाने से रोक ने के लिए?
- जिस देश में बीपीएल के ज़रिए स्कूल में दाखिला लेकर बच्चा सूमो गाड़ी से स्कूल आता हो वहाँ क्या प्रणाली चलती होगी?
- सात सामाजिक अपराध:
१. सिद्धांतविहीन राजनीति
२. मूल्यविहीन शिक्षा
३. परिश्रमविहीन धनोपार्जन
४. नीतिविहिन व्यापार
५. विवेकहीन मंनोरंजन
६. संवेदनाहीन विज्ञान
७. वैराग्यरहित उपसना
२. मूल्यविहीन शिक्षा
३. परिश्रमविहीन धनोपार्जन
४. नीतिविहिन व्यापार
५. विवेकहीन मंनोरंजन
६. संवेदनाहीन विज्ञान
७. वैराग्यरहित उपसना
- जरा सोचिये, इनमे से एक या एक से अधिक का निर्बाध सामाजिक प्रचलन क्या समाज़ को अच्छे दिन की ओर ले जा सकेगा?
- जिस समाज की युवा पीढ़ी को बिना श्रम और उपार्जन के धनार्जन की हवस हो जाए, उसका पतन कौन रोक सकता है?
- हमारी पुरानी शिक्षा पद्धति में साफ़ साफ़ विदित होता है कि शास्त्र और शस्त्र की विद्या दोनों ही एक साथ दी जानी चाहिए। शास्त्र विद्या मानवीय सच्चाई, मानव जाति की उत्पत्ति का कारण, समाज में एक समरसता, धर्म , नीति इत्यादि को समावेशित करता था । जबकि शस्त्र विद्या स्वरक्षा, धर्म रक्षा, मानव कल्याण और राज्य की रक्षा से प्रेरित था। शस्त्र निपुणता हमें शक्तिशाली जरूर बनता है परन्तु शास्त्र विद्या के अभाव में यही शक्ति हमें मानवता से दूर अपने को सर्वशक्तिमान के रूप में प्रतिष्ठित करने के लिए प्रेरित भी करती है।
- महाभारत में एकलब्य से द्रोणाचार्य का अंगूठा मांगना भी ऐसे ही सोच से प्रेरित प्रतीत होता है। एकलब्य ने अपने को धनुर्विद्या में तो निपुण कर लिया था परन्तु द्रोणाचार्य को यह पता था कि उसे शास्त्र ज्ञान की प्राप्ति नहीं हुई है और मानवजाति को इसके गंभीर परिणाम भुगतने पद सकते हैं ।
आज के परिवेश में हम यही देख रहे हैं कि हमारी स्कूली शिक्षा हमारे देश के बच्चों को बस उनकी जिंदगी में आने वाले जद्दोजहद से दो चार होने और उस पर विजय पाने के लिए सभी शस्त्र मुहैया कराने का दावा करती है। आज के स्कूलों और कॉलेजों के विज्ञापन इस तथ्य को सर्वथा उजागर करते हैं। क्षेत्रीय भाषा, इतिहास, भूगोल, दर्शन, धर्म, राजनीति, नैतिक मूल्य इत्यादि जिंदगी में आगे बढ़ने की परिभाषा में कहीं भी कोई योगदान नहीं दे रहे हैं। आज यही बच्चे बड़े होकर जब अपने शस्त्रों (प्रौद्योगिक दक्षता, वाक्पटुता, मैनेजमेंट स्किल, व्यक्तित्व विकास, शरीर सौष्ठव, लीडरशिप स्किल इत्यादि) से लैस दुनिया रुपी रणभूमि में पहुंचते हैं तो शास्त्र विद्या के अभाव में जिंदगी के मायने ही समझने में अपने आपको असमर्थ पाते हैं।
इसी क्रम में एन केन प्रकारेण हमारी अपने को सबसे ऊपर देखने की इच्छा देश के आगे भयावह स्थिति खड़ा कर चुका है या कर सकता है। इस अधूरी विद्या को जितनी जल्दी हो सके एक सम्पूर्ण विद्या में परिवर्तित करने की आज देश को जरूरत है। अन्यथा हम कुछ भी कर लें देश के अच्छे दिन हमसे दूर होते जायेंगे।
- कल हमारे केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री की एक मोटर दुर्घटना में मृत्यु हो गयी। भगवान उनकी आत्मा को शांति प्रदान करें। इसी के साथ समाचार पत्रों में और दूरदर्शन पटल पर गहन विश्लेषण भी शुरू हो गएँ हमारे यातायात के नियम और उसके पालन पर। अगर देखा जाये तो गली मोहल्लों में, कार्यालयोंं में और गावों में हर जगह सब बेतरतीब यातायात से परेशान नजर आते हैं। तो बात आती है की अगर सभी लोग इससे परेशान हैं तो आखिर इस परेशानी का कारण कौन हैं ? वह कौन लोग हैं जिसके वजह से सभी इतने खौफजदा हैं ?
वैसे तो आधिकारिक तौर पर हमारे देश में हर साल करीब १,३१,००० मौतें होती हैं। लेकिन असली आंकड़ा शायद इससे कहीं ज्यादा होगा। अगर किसी और अप्राकृतिक कारणों से होने वाली मौतों को देखें तो सड़क पर होने वाली मौतें कहीं से कम नहीं हैं, जो आज तक किसी बड़े बहस का विषय न बन सकी। क्या इस देश में किसी नामी आदमी के ऊपर असर डालने वाली चीजें ही बहस का मुद्दा बन सकती हैं ? अभी तक इस विषय पर देश भर में बहस क्यों नहीं छिड़ी ? जो भी है, यातायात नियम और उसका अक्षरशः अनुपालन हमारे देश का एक बड़ा मुद्दा ही नहीं है बल्कि इस देश के नागरिकों का सामाजिक व्यवहार भी दर्शाता है।
ऑक्सफ़ोर्ड डिक्शनरी में दुर्घटना की परिभाषा कुछ इस तरह से है "एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना जो आम तौर पर अप्रत्याशित रूप से और अनजाने में होता है और जिसके परिणामस्वरूप नुकसान या चोट में पहुंचती है"। लेकिन गौर करने की बात है की अप्रत्याशित रूप से और अनजाने में होने वाली घटना (यानि कि वह जिसके होने की प्रायिकता बहुत कम होती है या फिर उसका पूर्वानुमान नहीं होता) इतने बृहद रूप से हमारे देश में हो रही है और हमें इसकी कोई चिंता ही नहीं होती। इन दुर्घटनाओं की बृहद्ता बताती है की यह अनजाने में होने वाली घटनाएँ नहीं हैं। क्योंकि अनजाने में होने वाली घटनाओं को समय के साथ देश के सजग नागरिक सुधार लेते हैं और उसकी पुनराबृत्ति नहीं होती। लेकिन हमारे यहाँ तो इनकी संख्या बढ़ती ही जा रही है। इसका मतलब कुछ ऐसा है जो इन घटनाओं की प्रायिकता या संभावना को बढ़ा रही है और वह हैं यातायात नियमो का जानबूझकर धड़ल्ले से उल्लंघन। यह उलंघनकर्ता ही दुर्घटनाओं के होने की संभावना को बढाते हैं और नियमो के अनुपालकों का भी जान जोखिम में डालते हैं।
इसलिए जानबूझकर दुर्घनाओं की संभावना बढ़ाने वाले बस एक दुर्घटना के जिम्मेदार नहीं बल्कि मौत के जिम्मेदार हैं और इनको किसी के हत्या का आरोपी मानना चाहिए।
- It's rare to find a son with integrity and honesty, who has enjoyed the benefits (wealth and sycophancy) of wrongdoings of power yielding father throughout his life without any opposition to the father's ways. Therefore, people should be held responsible to elect THE FATHER'S SON with thumping majority without giving this fact a consideration.
- I understand that the development of a nation as well as the human development index not only depends upon the work of a government but also its citizens who feel responsible to the nation. If we look at the general tendencies in the social circles we will find that we have to be more responsible towards water, sanitation, cleanliness, aforestation, traffic rules, social behaviour, corruption, population growth and so many more. However, the nation at present lacks any mechanism which can be utilised to inculcate this responsibility in people.
Therefore, I feel that there should be a social awareness cell within the government which makes or suggests or arranges documentaries related to social responsibilities and makes it mandatory for the television channels to telecast at least 3-4 minutes an hour as their social responsibility. This may help us tremendously if this continues for a few years.
- परम्परावादी और सहानुभूति से प्रेरित राजनीति से शुरू करके, जातिवादी और धर्म आधारित राजनीति को पार करते हुए आज देश ने विकासोन्मुखी राजनीति को अपनाया है. इस एतिहसिक परिवर्तनशीलता को नमन. अब हमारी कोशिश यही होनी चाहिए की जाति और धर्म के नाम पर होने वाली राजनीति दोबारा अपना फन ना उठा पाए.

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