हम देश को किधर ले जा रहे हैं?
हम देश को किधर ले जा रहे हैं?
बहुत बड़ी विडम्बना है कि १९९० में भी सुनता था की दुनिया दिन पर दिन ख़राब होती जा रही है और आज २४ साल बाद २०१४ भी यही सुनने को मिलता है । इससे भी बड़ी विडम्बना की पिछले २४ सालों से मैं हमेशा ही यह अख़बारों के जरिए ख़बर पाता रहा हूँ कि हमारी सरकार और हमारे ग़ैर सरकारी संस्थान सभी इस ओर महत्वपूर्ण कदम उठा रहे हैं। लेकिन फिर भी दुनिया ख़राब होती ही जा रही है। आखिर इसका कारण क्या है ?
यह तो रही मेरे अब तक के जीवन की दृस्टि में। जबकि १००-१५० सालों पहले से ही, जो कि भारत, यूरोप और अमेरिका के सामयिक इतिहास और ऐतिहासिक कहानियों से विदित होता है, इस तरह की दशाएँ मौज़ूद थीं। धन और शक्ति हमेशा से मानव जीवन के बुद्धि पर हावी रहे हैं। यह कोई गलत बात भी नहीं है। अपने गृहस्थ आश्रम में धन, शक्ति और ऐश्वर्य को वेदों में भी प्राथमिकता प्राप्त है। तो हमसे चूक कहाँ हो गयी ? चूक हुई और वह यह की हम इस प्राथमिकता को तो स्वीकार कर लिए लेकिन गृहस्थ आश्रम में प्रवेश के पहले जो नैतिकता और ज्ञान का पाठ पढ़ना चाहिए उससे हम विमुख हो गए।
अगर हम निरा मानव मनोविज्ञान को समझें तो पाएंगे कि हर युग में ऐसे लोग हुए हैं जो समाज को गन्दा करने में विश्वास रखते थे। सामान्यतः किसी समय पर समाज में १५% लोग इतने ईमानदार होते हैं कि उनकी ईमानदारी को किसी भी हालत में कोई भी कारण देकर डिगा नहीं सकते और १५% लोग ऐसे होते हैं जो हमेशा बेईमानी ही सोचते हैं और उन्हें कितना भी समझाया या डराया जाय वो अपनी बेईमानी नहीं छोड़ सकते। लेकिन समाज की अच्छाई और खराबी इनसे सम्पादित नहीं होती। समाज की अच्छाई उन ७०% लोगों से सम्पादित होती है जो दण्ड के आभास से ईमानदार हो जाते है (या ईमानदार बन जाते हैं) और दण्ड के अभाव में बेईमान बन जाते हैं। सामाजिक व्यवस्था इन्ही के लिए बनी है। (नीचे दिए गए ग्राफ से यह विदित होता है)
आज के परिवेश में हम यह पाते हैं कि बेईमानी को कोई दण्ड नहीं मिल रहा है और यही कारण है की उन ७०% लोगों में से बहुतेरों के मन से सामाजिक व्यवस्था से वह दण्ड का आभास ख़त्म हो गया है। इस कारण उन्हें अपने स्वार्थ के लिए किसी भी गलत काम करने में कोई संकोच नहीं होता क्योंकि उन्हें यह पता लग गया है कि ऐसा तो होता ही है और चलन में है। यहाँ तक की उनके अंदर गलत को गलत समझने की शक्ति भी चली गयी है। इस वजह से उन ७०% लोगों में से बहुत ज्यादा प्रतिशत ईमानदारी के अंतिम छोर में शामिल हो गए हैं। कोई भी सामाजिक व्यवस्था तभी तक चल सकती है जब तक व्यवस्था को मानने वालों की संख्या बहुतायत हो, नहीं तो व्यवस्था का टूटना या भंग होना निश्चित है।इसलिए भारतवर्ष की नई सरकार से यही अपेक्षा है की कम से कम देश में ऐसी स्थिति को पैदा करे जिससे कि लोगों की इस व्यवस्था में फिर विश्वास कायम हो और गलत काम करने के पहले एक बार उस कृत्य के असर, अपने ऊपर या समाज के ऊपर, का आभास जरूर हो।
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