एक सुनागरिक की व्यथा
एक सुनागरिक की व्यथा
किसी देश की व्यवस्था और राजनीतिक परिदृश्य, उस देश के नागरिकों की वृहद् तौर पर सोच को दर्शाती है। इस नज़रिए से, आज के अखबार, दूरदर्शन और दूसरे समाचार माध्यमों से परिलक्षित होता है कि कहीं न कहीं हमारे देश की जनता ही देश की वर्तमान स्थिति की ज़िम्मेदार है। जबकि जनता रोती है कि हम क्या कर सकते है, हमारे हाथ में क्या है, करने वाले तो सरकारी महकमें के लोग और हमारे चुनें हुए माननीय लोग हैं, जो हमारी ज़रूरतों और व्यथाओं को देश के सर्वोच्च पटल पर रखते हैं और हमें अनुगृहित करते हैं। लेकिन कभी भी हम यह नहीं कहते या सोचते कि देश की दी हुई व्यवस्था अपने आप में इतनी सुदृढ़ है कि उसके पालन मात्र से ही बहुत कुछ ठीक हो जायेगा। कुछ तो ऐसा है जो हमें इस दिशा में न सोचने के लिए मजबूर करता है और हम सोचते भी हैं तो शायद व्यवस्था पालन के दौरान ज़िन्दगी की दौड़ में कहीं पीछे छूट जाने का डर रहता है। लेकिन हम अपनी इस डर की वजह से अपनी ही व्यवस्था और अपने ही देशवासियों के लिए कैसा माहौल खड़ा करते हैं इस बात से अनभिज्ञ रहते हैं। अगर हम ध्यान दें तो पायेंगे कि हर देशवासी कुछ सामाजिक व्यथाओं से रूबरू हो हो रहा है और वह बस आह भरकर आगे बढ़ता जा रहा है, अपने को एक स्वच्छ समाज देने में असमर्थ पा रहा है। आख़िर ऐसा क्यों है कि जहाँ हम अपने ऊपर राज करने के लिए लोकतांत्रिक रूप से अधिकारी हैं वहीं हम समाज में डरे सहमें रहते हैं। क्या कमी है हममें जो अपने ही राज में डरना पड़ रहा है। यहाँ मैं आम नागरिक के कुछ आम व्यथाओं का सांकेतिक उल्लेख करता हूँ।
१) बाहुबलियों के निर्बल कार्यकर्ता भी शह पाकर इतने सबल हो गये हैं कि गली मोहल्लों की जनता डर में जी रही है, क्या हमें यही लोकतांत्रिक अधिकार प्रदत्त है?
२) हमनें जिसे अपनी रक्षा के लिए रखा, वह हमारे सहनशक्ति का मखौल उड़ाते हुए आजकल हमारे ही प्रताड़नादायकों की रक्षा में लगा हुआ है।
३) हम उस विचार से व्यथित हैं जिसके तहत तेज़ रफ़्तार चालकों को दण्ड देने के बजाय हम सड़क पर रफ़्तार तोड़क बनाने में विश्वास रखते हैं।
४) हम उन बड़े बुज़ुर्गों में सम्भावना तलाशते रहे जिन्होंने किसी उम्र के पड़ाव पर ज़िन्दगी के मायने समझ लिए, पर वह तो ख़ुद ही अपने बच्चों में अपनी अधूरी इच्छाओं को पूरा करने की तमन्ना जगाए मिले। और इसके लिए कोई भी हथकण्डे अपनाने की सीख देते मिले।
५) हम व्यथित हैं कि जिस स्कूली और विश्वविद्यालयी शिक्षा के ज़रिए देश की प्रगति निर्धारित होती है, उसी पर आज हम सबसे कम ध्यान देते हैं। हमनें ऐसा क्यों कर दिया कि हमारे नौनिहालों को अच्छी शिक्षा देने के लिए क़ाबिल लोग नहीं मिल रहे हैं।
६) यह सर्वविदित है कि साधारण मनुष्य की हर क्रिया उसके प्रकृति प्रदत्त मनोवैज्ञानिक स्तर से से संचालित होती है। वह वही सपने संजोता है जिससे उसे वैभव और प्रतिष्ठा की प्राप्ति हो। अगर किसी देश को अपनी जनता को सच्ची शिक्षा प्रदान करने की ललक हो तो इस कारण से उसे वह सभी कुछ करना चाहिए जिससे की शिक्षक की समाज में प्रतिष्ठा बढ़े। आज के समाज, जहाँ किसी की सामाजिक प्रतिष्ठा चरित्र और ज्ञान पर निर्भर नहीं है, में पुरातात्विक ऋषि शिक्षक ढूँढना या वैभवजनित बाज़ार में शिक्षक को बाज़ार से अलग रहने का संदेश देना बेमानी है। इसलिए, या तो कोरे बाजार से समाज को दूर रखें या फिर बाज़ार रूपी समाज में शिक्षक की प्रतिष्ठा बढ़ाने की ओर कार्य करें।
७) यातायात के दौरान कोई छोटी या बड़ी दुर्घटना हो जाने पर सही या ग़लत का फ़ैसला भीड़ के हवाले हो गयी है और भीड़ की विवेकशीलता सर्वविदित है। दुर्घटना में जो ज़्यादा प्रभावित या जो ज़्यादा दमदार दिखा भीड़ उसी की तरफ़ हो जाती है, भले ही वही यातायात नियमों का अनुपालन करने में कोताही बरता हो। यह तरीक़ा अनुशासित व्यक्ति के मुँह पर करारा तमाचा है जो हमें नहीं होने देना चाहिए। मैं उसी भीड़ से पूछना चाहूँगा कि दुर्घटना के कारक, अर्थात सड़क पर यातायात अनुशासनहीनता, दिखने पर वह चुप क्यों होते हैं।
८) हम बात करते हैं उन लोगों कि जिनके पास घोषित इनकम से कहीं ज़्यादा या अकूत सम्पत्ति है। सरकारें यह साबित करने में अपने को असमर्थ पा रहीं हैं, जबकि एक साधारण मनुष्य को कुछ ख़ास लोगों के पास यह आसानी से दिख जाता है क्योंकि वह जानता है कि फ़लाँ आदमी कौन है, क्या करता है और उसके उस काम से वह कितना कमा सकता है। बस्तियों से निकलने वाले SUVs, BPL कार्ड धारकर बच्चों का SUV से स्कूल आना, बड़े-बड़े घरों के आगे निठलले लोगों का जमावड़ा, इनसे समाज में एक डर व्याप्त होना इत्यादि इत्यादि इसके परिचायक हैं। लेकिन यह हमारा दुर्भाग्य है कि ऐसे लोगों के ऊपर सरकारी महकमें की सवसंज्ञान लेने की कोई प्रथा नहीं है। क्या हम कभी इस तरह के लोगों से पार पाएँगे।
