भारत में जाति और इसके मायने
बात करीब ३६-३७ साल पुरानी है। मैं उस समय ६-७ साल का था। बनारस के एक छोटे से गांव में अपने माता-पिता के साथ रहता था। गांव के बच्चों के साथ खेलता था। एक छोटा बच्चा बस अपनी इच्छाओं की पूर्ति और माता-पिता के प्यार की इच्छा रखते हुए बड़ा हो रहा था। उसको छुआछूत, जाति, धर्म इत्यादि से कोई लेना देना नहीं था। एक बार मैं कुछ बच्चों साथ घर के बाहर खेल रहा था। तभी आस पास के वयस्क और बड़े लोग एक साथ चिल्लाना शुरू किये,"भागो बच्चों! वो आ रहा है और तुम सभी को बोरे में बंद करके ले जायेगा"। हम बच्चों को कुछ समझ में नहीं आया, लेकिन चूँकि बड़ों ने कहा है तो बात माननी ही पड़ेगी। अतः हम सभी अपने-अपने घरों में दुबक गए। लेकिन मन की उत्कंठा को शांत करने के लिए छिप कर बाहर देखने लगे कि आखिर वह कौन है जिससे हम सभी को इतना डर है। तब पता चला की वह एक हमारे जैसा ही आदमी है और उसका रंग थोड़ा सांवला है। उसके हाथ में एक पतली लकड़ी का डंडा और पीठ पर एक खाली बोरा जो उसने अपने दाहिने हाथ से कंधे के ऊपर से पकड़ा था। मुझे समझ में नहीं आया कि इनसे डरने की क्या बात है। लेकिन बच्चे उत्सुकतावश उस आदमी से दूरी बनाये हुए उसके पीछे-पीछे चलने लगे। साथ में बड़ों की आवाज़ सुनाई दे रही थी, "उसके पास मत जाओ, उसको छूना मत"। हमने देखा कि वह आदमी तालाब के किनारे दलदल में अपने डंडे से कोंचता और कभी कभी एक मेंढक पकड़ कर अपने पीछे बोरे में डाल लेता। ऐसा करते-करते थोड़ी देर बाद वह चला गया। बाद में कुछ बड़े लोगों को उनके बच्चों को समझाते सुना कि वह मुसहर जाति का था और उसको छूने से पाप लगता है। जब जब यह घटना याद आती है तो सोचता हूँ कि उस दिन उस हमारे जैसे सांवले व्यक्ति पर क्या गुजरी होगी। मैं तो बस उस एक दिन को सोचकर दहल जाता हूँ, जिस व्यक्ति को हर डगर पर ऐसी मानसिक प्रताड़ना मिले वह उस ज़माने में कैसे अपना जीवन जीता रहा होगा।
इतने साल गुजरने के बाद आज, जमशेदपुर जैसे शहर में, फिर ऑफिस के बाहर चाय पीते हुए किसी पांडेय नामक व्यक्ति को, जो देखने और पहनने में एक तथाकथित संभ्रांत परिवार से लगते थे, किसी से कहते सुना, " अरे यार! उसकी क्या बिसात, हम ब्राह्मण हैं और आज भी हम उसके हाथ का छुआ पानी नहीं पीते"। उनकी इस बात ने मुझे यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि, अभी के परिवेश और दशाओं को ध्यान में रखते हुए, हमारे देश और समाज को मानसिक रूप परिपक्व होने में सालों लगेंगे। मुझे लगता है कि आज देश को आर्थिक और सामरिक विकास से कहीं ज्यादा मानसिक विकास और कर्तव्य बोध कि जरूरत है।
इतने साल गुजरने के बाद आज, जमशेदपुर जैसे शहर में, फिर ऑफिस के बाहर चाय पीते हुए किसी पांडेय नामक व्यक्ति को, जो देखने और पहनने में एक तथाकथित संभ्रांत परिवार से लगते थे, किसी से कहते सुना, " अरे यार! उसकी क्या बिसात, हम ब्राह्मण हैं और आज भी हम उसके हाथ का छुआ पानी नहीं पीते"। उनकी इस बात ने मुझे यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि, अभी के परिवेश और दशाओं को ध्यान में रखते हुए, हमारे देश और समाज को मानसिक रूप परिपक्व होने में सालों लगेंगे। मुझे लगता है कि आज देश को आर्थिक और सामरिक विकास से कहीं ज्यादा मानसिक विकास और कर्तव्य बोध कि जरूरत है।
