यादृच्छिक विचारमाला
19.10.2016
आज मुंशी प्रेमचंद की क़रीब सौ साल पुरानी रचना 'नमक का दरोगा' फिर से पढ़ी। उसमें वर्णित तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था आज की दशाओं से हूबहू मिलती हैं, ख़ासकर धर्म (कर्तव्य) और धन की लड़ाई। इन सौ सालों में हमने शायद समाज के वैचारिक उत्थान पर ज़्यादा कार्य नहीं किया होगा, अन्यथा इतने सालों के बाद स्थिति कुछ और होती। हाँ, इतना ज़रूर हुआ है कि साहूकार अलोपीदीन जैसे धर्म का मर्म समझने वाले प्रतिभागी आज के समाज में अलोपित होते जा रहे हैं।
