सरकारी तंत्र की एक कहानी
पप्पू उस समय में अपने माता-पिता और एक बहन के साथ बनारस के एक बहुत ही पुराने मोहल्ले में रहता था जो कि आज भी अपनी गलियों के लिए प्रायः जाना जाता है। घर का सबसे छोटा लड़का था पर जिम्मेदारियाँ तो बड़ी थीं। कहने को तो उसके कई बड़े भाई-बहन थे पर वह सभी लोग अपने जीवन-यापन के लिए और शहरों का रुख कर लिए थे जिससे की परिवार की बाकी जरूरतें पूरी हो सकें। महज १३ साल का ही तो था पप्पू जब उसके पिता ने उसके सामने ही बनारस के एक नामी अस्पताल में रात को दो बजे के वक़्त दम तोड़ा था। उस रात मां का रुदन और असहज परिस्थिति ने जैसे उस नन्हें बच्चे की अंतरात्मा को झकझोर दिया था। वह ही तो था जो १० साल की उम्र से हर महीने अपने बूढ़े पिता को लेकर बनारस की कोषागार (ट्रेज़री) में जाता था और सभी कागज़ी कार्यवाही करवाते हुए स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया से २७६ रुपये की पेंशन लेकर ख़ुशी-ख़ुशी घर आता था। इस प्रक्रिया में कोषागार के सभी लिपिक, कर्मचारी और यहाँ तक की कोषाध्यक्ष भी इस बच्चे को अच्छे से पहचानते थे और बात भी करते थे।
यह कहानी उसी पप्पू की है जो अपनी छोटी उम्र की वजह से सभी पर विश्वास करता था। यह भी कह सकते हैं कि ज़माने के धक्कों ने अभी तक उसके अस्तित्व में नकारात्मकता शब्द का उद्घोष नहीं करवा पाये थे। यहीं से सिलसिला शुरू हुआ, जब उसने अपने पिता को खो दिया और अब उनके पेंशन का थोड़ा अंश उसकी मां के नाम हस्तांतरित होना था। पिता की मृत्यु के एक महीने बाद, जब घर से सभी लोग जा चुके थे, पप्पू कोषागार कार्यालय में एक प्रार्थना पत्र और मृत्यु प्रमाण पत्र लेकर पहुँचा। सम्बंधित लिपिक महाशय ने बहुत ही अच्छे तरीके से उससे बात की और खेद जाहिर करते हुए सहानुभूति भी जताया। तत्पश्चात आगे की कार्यवाही के लिए एक हफ्ते बाद फिर बुलाया। हालाँकि पप्पू उस समय दसवीं कक्षा में प्रवेश किया था फिर भी घर के हालात के मद्देनजर उसे विद्यालय की परवाह किये बिना कचहरी के चक्कर काटने पड़े। इस बार लिपिक महाशय छुट्टी पर थे और दूसरा कोई इस बारे में कुछ बोल नहीं पाया। ऐसे करते करते करीब डेढ़ महीने बाद पप्पू को बताया गया कि गांव के लेखपाल से एक प्रमाण पत्र चाहिए की उसके पिता के परिवार में उनके कितने लड़के-लड़कियां हैं और उन सभी लोगों से यह भी लिखवाना है की पिता की मृत्यु के बाद उनकी विधवा के लिए जो पेंशन बनेगी उसमें से किसी को कोई हिस्सा नहीं चाहिए।
लेखपाल उस समय तहसील में बैठते थे और चूँकि उनको गांव भ्रमण भी करना होता था उनसे मिलना अपने आप में एक दुरूह कार्य हुआ करता था। खैर, कई बार भोजूबीर के तहसील में जाने के बाद उनसे मुलाक़ात हुई और पहले ही बार में पप्पू को पांच रुपये चाय पानी के लिए खर्च करना पड़ा, पर उसे बिश्वास था की यह पैसा जाया नहीं जायेगा। लेकिन उस फ़ोन-और-मोबाइल-विहीन काल में किसी सरकारी महकमे में एक कर्मचारी से मिलना इतना आसान नहीं था। बस, आप चक्कर काटते रहिए और मिलन की तारीख़ प्रभु की इच्छा पर छोड़ दीजिये। इसी सिद्धांत के तहत, पप्पू हफ्ते में २-३ दिन साईकिल से कभी तहसील, कभी कोषागार, कभी लेखपाल के घर के चक्कर काटता रहा। समय-समय पर उस छोटे बच्चे से भी लोगों ने रिश्वत की मांग की जिसे उसने बहुत ही शिद्दत से अंजाम दिया। भले ही घर में माँ के पास पैसे नहीं थे लेकिन अपने पप्पू पर इतना बिश्वास था कि यह ज़रूर एक दिन पेंशन बनवा देगा और इसी वजह से थोड़ा ही सही पर इन मांगों को पूरा करती गयीं। ख़ैर, लेखपाल साहब से अंततः ७ महीने के बाद प्रमाण पत्र मिला। चूँकि अधिकतर भाई-बहन शहर से दूर रहते थे, सभी लोगों से डाक द्वारा अनापत्ति प्रमाण पत्र मंगाया गया। वह भी अलग-अलग नहीं चलेगा, एक ही पेज पर सबका हस्ताक्षर चाहिए। इसलिए वह कागज़ देश के कई शहरों से होता हुआ बनारस पहुंचा था जिसमे करीब ४ महीने का समय लगा। अब भी काम पूरा नहीं हुआ, इस अनापत्ति पत्र को एक राजपत्रित अधिकारी से फिर से प्रमाणित करवाना था। अब एक गरीब और लाचार परिवार के लिए यह भी एक पहाड़ सा काम था। किसी ने सुझाया कि उनके परिचय के एक वकील साहब चुंगी कचहरी के किसी अधिकारी से यह काम करवा देंगे। पप्पू बहुत खुश हुआ और उनके साथ जाकर वकील साहब को हस्ताक्षरित कागज़ दे आया, इस आशा के साथ की बस काम हो गया। लेकिन लगभग ३ महीने दौड़ने के बाद वकील साहब ने बताया की आपका कागज़ तो चुंगी कचहरी में अधिकारी साहब के कार्यालय से गायब हो गया। इस गैरज़िम्मेदाराना वाक़ये ने पप्पू को फिर से वहीँ ला खड़ा किया। घर की माली हालत और फिर से हस्ताक्षर के लिए ४ महीने और, किसी ने सुझाया की सभी तो राज़ी थे तो क्यों ना हम सब मिलकर अलग -अलग हस्ताक्षर कर दें। वकील साहब ने वादा किया कि इस बार वह प्रमाणित करवा देंगे लेकिन ३०० रूपये लगेंगे और उन्होंने इसके एवज़ में बख़ूबी जिम्मेदारी निभाई। अब सब प्रमाण पत्र लेकर पप्पू ने कोषागार कार्यालय में जमा कर दिए। समय बीतता गया और वही आज नहीं कल आना लगा रहा। लगभग एक साल से ज्यादा हो गए पर अभी तक पेंशन दूर-दूर तक नज़र नहीं आ रही थी।
उसी समय एक परिचित ने कहा की उनका परिचय कोषागार कार्यालय में हैं उन्होंने कहा है कि काम हो जायेगा। उस दिन पप्पू माँ और उस परिचित के साथ कार्यालय पहुंचा और आश्चर्यचकित होकर देखा की कैसे सभी कर्मचारी उसके काम को इतनी तत्परता से अंजाम दे रहे हैं। उसके अंदर का विश्वास और दृढ़ हो गया की सब लोग उसके बारे में सोच रहे हैं और उसकी तकलीफ को समझते हैं। उस हफ्ते सब काम हो गया और अंततः पप्पू की माँ का पेंशन उनके हाथ में आ गया। लेकिन यह क्या माँ का पेंशन ३२६ रुपये (महंगाई भत्ता लेते हुए) है तो पिछले इतने महीने के हिसाब से तो ज्यादा होना चाहिए, पप्पू ने परिचित से यह सवाल पूछा। परिचित ने कहा, ''अरे पप्पू , तुम क्या समझ रहे थे की वह लोग ऐसे ही इतनी तत्परता से काम कर रहे थे? असल में जितना पैसा मिला था उसका बीस प्रतिशत उन्हें देना पड़ा और यही बात वे तुमसे नहीं कह पा रहे थे।" पप्पू ने इस बात को समझा और जब माँ के साथ हर महीने कोषागार जाने लगा तो उसे पता चला कि उसके परिचित सच बोल रहे थे।
यह कहानी करीब ४० साल पुरानी है, पप्पू की माँ इस दुनिया में नहीं रहीं पर वह जिन्दा है। लेकिन यह लगभग डेढ़ साल का समय उसके जेहन में आज भी किसी शूल की तरह चुभता है, जब उसके अबोध मन और मस्तिष्क को सरकारी तंत्र ने इस तरह छला था। वह ऐसे कार्यालय में कार्यरत कर्मचारियों को हमेशा शक की निगाह से देखता है और उन्हें मानवता का गुनहगार समझता है। जो गरीब, लाचार, अबोध बच्चे को भी अपनी निर्दयी इच्छाओं की पूर्ति के लिए नहीं छोड़ते।
वह सोचता है कि आज देश में न जाने कितने ही उसके जैसे पप्पू उल्लिखित कहानी से एकाकार हो रहे होंगे और अपने मन में इस समाज, देश और दुनिया के प्रति एक अलग विचार बना रहे होंगे। इन सभी पप्पुओं की यह विचारमला कहीं न कहीं एक अविश्वासी और द्वेषपूर्ण वयस्क तैयार कर रही होगी। हालांकि, खुद पप्पू ने आत्म विश्लेषण करके और अपने को इस विचारमला से ऊपर उठाकर एक ऐसे व्यक्तिव को तैयार किया है जिसका एक मात्रा प्रयोजन है कि उसकी कहानी किसी और के साथ नहीं दुहरायी जाए।
