Tuesday, April 10, 2012
Monday, April 9, 2012
एक विधुर की जिंदगी
घर का बड़ा बेटा था
जिम्मेदारियों से दबा था
जिंदगी के किसी मोड़े पर एक हमसफ़र की आस थी
इसी से जिंदगी बस थोड़ी सी निराश थी
जब हम पहली बार मिले थे
मन की वादियों में फूल से खिल उठे थे
हम विवाह बंधन में बंध चुके थे
हमारी जिंदगी को कुछ मायने मिल गए थे
एक साल का साथ देकर
आप सुदूर चले गए हमें छोड़कर
अब जिंदगी अकेले जीता हूँ
बस आपकी यादों को तराशता हूँ
अब पचपन के पार हूँ
बस अपने दिल को स्वीकार हूँ
अब कुछ दिनों की बात है
फिर तो स्वर्ग का ही आत्मसात है
तब जब हम फिर मिलेंगे
स्वर्ग की वादियों में फिर से फूल खिलेंगे
एक विधुर की जिंदगी
हमारी जाति और हमारे बच्चे
एक संभ्रांत और शायद प्रतिष्ठित परिवार की सात वर्षीय बालिका ने आज मुझसे अनायास ही एक प्रश्न करके मुझे अचंभित कर दिया.
उसने पूछा : अंकल! क्या आप राजपूत है?
मैंने उत्तर दिया : मुझे नहीं पता बेटा, लेकिन यह राजपूत कौन होते है?
उसने कहा: राजपूत मतलब ' राजा का पुत्र '. हम राजपूत हैं इसलिए हम राजा की तरह रहते हैं.
इस वाकये ने मेरे अन्दर खुद ही एक प्रश्न खड़ा कर दिया कि क्या आज के पढ़े लिखे और संभ्रांत परिवार के लोग भी अपने बच्चों को जाति जैसे भेदभाव पैदा करने वाली शिक्षा दे रहे हैं? क्या हम बड़ी शिक्षा लेने के बाद अपने खुद को इस जाति रूपी बंधन से मुक्त कर सकते हैं?
उसने पूछा : अंकल! क्या आप राजपूत है?
मैंने उत्तर दिया : मुझे नहीं पता बेटा, लेकिन यह राजपूत कौन होते है?
उसने कहा: राजपूत मतलब ' राजा का पुत्र '. हम राजपूत हैं इसलिए हम राजा की तरह रहते हैं.
इस वाकये ने मेरे अन्दर खुद ही एक प्रश्न खड़ा कर दिया कि क्या आज के पढ़े लिखे और संभ्रांत परिवार के लोग भी अपने बच्चों को जाति जैसे भेदभाव पैदा करने वाली शिक्षा दे रहे हैं? क्या हम बड़ी शिक्षा लेने के बाद अपने खुद को इस जाति रूपी बंधन से मुक्त कर सकते हैं?
