Tuesday, June 28, 2016

लोकतांत्रिक सुशासन

शासन, वह भी सुशासन !!!! एक लोकतांत्रिक सुशासन में सरकार की हमेशा यह कोशिश रहती है कि देश के नागरिक एक सहूलियत भरी जिंदगी बसर करें। लेकिन कुछ कारणों वस देश की जनता अपने ही तथाकथित नुमाइंदों के हाथों या फिर उनके ही जैसे फेहरिस्त वालों के हाथों ठगी जाती हुई प्रतीत होती है। हमारे देश में हजारों कानून होने के बावजूद भी यह हालात हैं कि नियम और कानून का उल्लंघन करने वालों या कहें कि 'बिन पेंदी के लोटों' के लिए जिंदगी ज्यादा सहूलियत भरी है और वह सभी जो अपने जीवन में देश और समाज के प्रति जबाबदेही को ध्यान में रखते हुए अपने आपको कुछ सिध्दांतो से बाँध लेते हैं, और उससे टस से मस नहीं होते, उनका जीवन का हर पल भारी जद्दोजहद से परिपूर्ण होता है।

इसलिए मुझे ऐसा महसूस होता है कि किसी भी सरकार के कार्यकाल को सुशासन तभी माना जाना चाहिए जब उसके शासनकाल में नियम और क़ानून मानने वालों की जिंदगी व्यक्तिगत, भावनात्मक, सामाजिक और आर्थिक रूप से सरल बनती है। हर मनुष्य जीवन का सरलीकरण चाहता है और यही नहीं मिलने पर वह येन केन प्रकारेण किसी सरल रास्ते (अर्थात भ्रस्टाचार, नियम उल्लंघन इत्यादि) की ओर रुख करता है जिससे उसकी जद्दोजहद कम हो सके। जब तक समाज और देश में धन और विलास पूजनीय होगा तब तक किसी भी तरह का नया प्रादुर्भाव अकल्पनीय है।

इसका एक समाधान जो नज़र आता है वह है "शासन को अविश्वास से अधिक विश्वास पर आधारित होना चाहिए"


सड़क दुर्घटना

16.06.2016

कल ही मैंने अपने ब्लाग पर जमशेदपुर में जनता के अन्दर असहनशीलता के बढ़ने के बारे में लिखा था और आज मुझे ख़ुद उसका शिकार होना पड़ा।
आज मैं लेबाॅरेटरी से शाम को आठ बजे के क़रीब घर लौट रहा था। हमेशा उसी रास्ते से आता-जाता हूँ। उस सड़क पर यातायात की तीव्रता की पहचान हैलोग किस तरह से चल सकते हैं उसका एहसास है और हमें कैसे चलना है उसका अनुभव है। लेकिन आज उस मोड़ पर १-२ किमी प्रति घंटा की रफ़्तार पर भी एक दुर्घटना हो गई। २०-३० किमी प्रति घंटा से चलने वाली एसयूवी के मालिक ने मुझे दोषी ठहराया कि मैंने उनकी एकदम नयी (शोरूम से निकली हुई) गाड़ी को धक्का मार दिया। जबकि उन्हें यह भी एहसास नहीं था कि जब मैं भीड़ भरे रास्ते पर मुड़ने की कोशिश कर रहा था उनकी नज़र रास्ते पर नहीं थी। ख़ैरयह तो महज़ एक दुर्घटना थी और क्षति दोनों की हुई। लेकिन जैसा कि हम जानते है आजकल लोग मनुष्य से ज़्यादा निरजीव गाड़ियों को तरजीह देते है और उस पर खरोंच लगने से उनकी आत्मा तार-तार हो जाती है और वे आग बबूला हो जाते हैं। वही आज सरदार जी (एसयूवी मालिक) के साथ भी हुआजबकि मेरी गाड़ी ज़्यादा क्षतिग्रस्त थी। वे गाड़ी से उतरे और ग़ुस्से में मेरे गाड़ी के पास आएगाड़ी की चाबी निकालीमेरे ऊपर हाथ उठाने की कोशिश की और चाबी लेकर चले गये। साथ में बोलते रहे "मुझे जानते नहीं मैं कौन हूँ और क्या कर सकता हूँ"। उनका व्यवहार देखकर तो वैसे भी उन्हें जानने की इच्छा ख़त्म हो गयी थी और ऐसे लोग दूसरों को हानि पहुँचाने के अलावा कर भी क्या सकते हैं। भलाई करने वाले तो चुपके से कर जाते हैं।
उसके बाद सड़क पर भीड़ लग गयीपुलिस भी आ गयी। सरदार जी मुआवज़े की माँग करने लगे। लेकिन यहाँ कौन न्याय करेगा कि ग़लती किसकी थी और मुआवज़ा किसको मिलना चाहिए। क्या सरदार जी ने अपनी गाड़ी के अलावा अपनी ड्राइविंग देखने की कोशिश कीनहीं। वह तो शायद सामने देख भी नहीं रहे थे, एकाएक जब उन्होंने देखा तो गाड़ी हल्की बाएं लिए लेकिन इसमें टक्कर नहीं बच पाई। क्या पुलिस ने मेरी बात सुननी चाहीनहीं। जिसने चिल्लायाहाथ उठाने की कोशिश कीगाड़ी की चाबी निकालने की हिम्मत की उसकी ग़लती तो हो ही नहीं सकती। जबकि बेतरतीब गाड़ी चलाने की आशा ऐसे ही मिज़ाज वालों से की जा सकती है। लेकिन पुलिस ने भी उसी का साथ दिया जिसने उदंडता दिखायी। पुलिस ने मुझसे नहीं बल्कि सरदार जी से पूछा "आपस में सुलह कर लेंगे नाजो गाड़ी बनाने का ख़र्चा है ले लीजिए इनसे"। भीड़ में कुछ लोगों ने यह भी परामर्श दियाऔर शायद सही ही दियाकि क्यों पुलिस के चक्कर में पड़ेंगे पैसा भी लेगा और इधर-उधर घूमाएगा भी। मैंने सरदार जी को अपना मोबाइल नम्बर दिया और उन्हें आश्वस्त किया कि वो गाड़ी बनवाने के बाद मुझे बिल देंगे तो मैं उतनी राशि उन्हें दे दूँगा। लेकिन उनको यह  कौन बतायेगा कि उनके द्वारा सरेआम हाथ उठाने से और उसके साथ मेरा चश्मा  टूटने से मुझे जो क्षति पहुंची उसका मुआवजा कौन देगा। हाथ उठाना तो दुर्घटना का भाग नहीं था। यह तो बस एक मनुष्य का दुर्व्यवहार था।  
इस भीड़ तंत्र के न्याय से मैं आहत नहीं था क्योंकि भीड़ की यही नियति होती है कि वह करती पहले है सोचने समझने की बात बाद में करती है।लेकिन आज की घटना ने मुझे यह सोचने पर मजबूर जरूर किया कि जनता के इस तरह के व्यवहार से क्या देश के अच्छे दिन आ पायेंगे। 

28.06.2016


ऊपर दिए गये घटना के क़रीब सात दिन बाद सरदार जी ने फ़ोन किया कि उनकी गाड़ी बन गयी है और मुझे ८००० रूपए देने है। चूँकि मैं शहर सेबाहर जा रहा था अतउन्हें मैंने पाँच दिन बाद अपने कार्यालय में बुलाया। मुझे एहसास था कि मेरे द्वारा इस देरी को शायद वह अन्यथा ले लेगेंलेकिन मुझे तो जाना ही था।

आख़िर १२ दिन के बादमेरी उपसथिति सुनिश्चित करने के बादवह मेरे कार्यालय के मुख्य द्वार पर हाज़िर हुए। मैंने ८००० रूपए का   अकाउंटपेयी चेक (उनके किसी कर्मी के नाम सेवह ख़ुद अपने नाम में नहीं चाहते थेकिसी के हाथों उनके पास भिजवाया और साथ में अपने उपर्युक्त ब्लागका URL भी एक पेपर पर लिख कर भेज दियापढ़ने के निवेदन के साथ।

क़रीब १० मिनट के बाद उनका फिर फ़ोन आया और उन्होंने कहा, "जिसको भेजा था उसे फिर भेजिए मुझे कुछ काग़ज़ात देने हैं" मैंने कहा कि मुझेआपसे कोई काग़ज़ात नहीं चाहिए आप चेक लेकर जा सकते हैं। लेकिन उन्होंने फिर अपनी बात दुहराई और इसलिए मैं ख़ुद द्वार पर गया। 

वह अपनी उसी एसयूवी से निकले और बोले,"सरआप जैसे जेनटिलमैन से मैं यह चेक नहीं ले सकता। अभी तक मैंने ऐसा आदमी नहीं देखा" मैंनेबोला कि आपका पैसा ख़र्च हुआ है तो आपको लेना ही चाहिए।लेकिन अन्ततः उन्होंने चेक लौटा दिया। बात पैसे की नहीं थीबल्कि उस एहसास कीथी जो सरदार जी के अन्दर पनपी थीउनके इस एहसास से मुझे अपार हर्ष की अनुभूति हुईमैंने उन्हें गले लगाकर विदा किया।


आज मेरे अनुभव में एक और अध्याय जुड़ा। इस दुनिया या आज के परिवेश में सहनशीलता और सरल व्यवहार भले ही आर्थिक और शारीरिक कष्ट दे सकते हैंलेकिन किसी की सैदधांतिक रूप से परिपक्व    नैसर्गिक चेतना को धूमिल नहीं कर सकते। हर मनुष्य सहज चेतना पूर्ण है और इसचेतना को जागने के लिए सरलसहनशीलभेद-भाव रहित सामाजिक वातावरण की ज़रूरत है। सरदार जी के अन्दर की सहज चेतना ने बाहर आकरउनके व्यवहार में अजब सी मिठास घोल दी।

Wednesday, June 15, 2016

समाज में सहनशीलता

कहते हैं कि किसी समाज का चरित्र या गुण समय के साथ बदलता है और किसी एक दिशा में बढ़ता या घटता है। लेकिन जमशेदपुर में एक अलग ही संयोग देखने को मिल रहा है। यहाँ सामाजिक सहनशीलता और असहनशीलता एक साथ बढ़ती हुई नज़र आ रही है।

यहाँ सहनशीलता चरम पर दिखती है जब:

- बीच सड़क पर एसयूवी खड़ी कर बात करते हैं और हम अपना रास्ता ढूँढ़ने लगते लगते हैं।
- तीन सवारी बैठाकर मोटरसाइकिल वाला हाॅरन देते हुए तेज़ी से निकलते हुए भले ही जनता के लिए काल हो पर हम अपने आप को बचाने के रास्ते ढूँढते हैं।
- धुँआँ उगलती गाड़ियाँ मुँह पर धुँआँ छोड़कर चली जाती हैं और हम हाथों से अपने लिए आकसीजन की व्यवस्था करते हुए आगे बढ़ जाते हैं।
- छुटभैए गुंडे सरेआम समाज को धता बताते हुए अपनी मनमर्ज़ी करते हैं और हम सहमें हुए अपनी सहनशीलता का परिचय देते हैं।

यह सब हमारी नाकाम व्यवस्था की वजह से हो सकता है जिस पर हम अकेले लगाम नहीं लगा सकते। लेकिन इसी के साथ हम अपने दम पर कुछ कर गुज़रने की क्षमता रखते हैं अपनी असहनशीलता का परिचय भी देते हैं जब:

- कार पर हल्का निशान लग जाने से हम मार पीट पर उतारू हो जाते हैं और सामने वाले को उसकी जगह दिखाने के लिए तत्पर रहते हैं।
- मोटरसाइकिल वाले लाख ग़लत चलाते हों लेकिन दुर्घटना के बाद बड़ी गाड़ी वाले की पिटाई भी होगी और मुआवज़े के लिए चक्का भी जाम करेंगे।
- सड़क पर चाहे कितना भी जाम लगा हो हमें इतनी जल्दी होती है कि हम हाॅरन पर से हाथ ही नहीं खींच पाते।
- भले ही हम अगले पान की दुकान पर जाकर  बस गप्प ही मारेंगे लेकिन वहाँ तक जाएँगे ८०-१०० किमी प्रति घंटे की रफ़्तार से।

इन दो विपरीत गुणों के पीछे एक सच है "मैं और मेरी इच्छा"। जहाँ हमारे ऊपर परतयक्ष असर पड़ता है हम असहनशील हैं, और जहाँ अपरतयक्ष दूरगामी सामाजिक असर हो सकता है हम बहुत ही सहनशील है। 

अगर इस प्रकार की सहनशीलता जल्द असहनशीलता में तब्दील नहीं हुई तो समाज पर इसका दूरगामी असर होगा।

पर्यावरण दिवस


जमशेदपुर झारखण्ड राज्य में एक छोटा पर बहुत पुराना औद्योगिक शहर है। औद्योगिक होने के कारण उसकी आबो-हवा में भी इसकी छाप है अर्थात वायु और जल प्रदूषण। 
कुछ दिनों पहले विश्व पर्यावरण दिवस मनाया गया। जमशेदपुर के दैनिक अख़बारों में अनेकानेक चित्र प्रकाशित हुए जिसमें विभिन्न प्रकार के संघ, समाज, समिति, मोर्चा, दल, विद्यालय, सरकारी कार्यालयों के सदस्य पौधारोपण करते दिखाई दिए। अाज क़रीब एक हफ़्ता बीत गया, पता नहीं कि उनमें से कितने पौधों ने अपनी आगे की जीवन लीला जारी रखी होगी।
लेकिन उसी शहर में आज पुराने ट्रक और डीज़ल आधारित तीन और चार पहिया वाहनों के धुएँ से सड़कें कभी-कभी काली दिखने लगती हैं। चूँकि शहर देश के बड़े शहरों में शुमार नहीं है इस प्रदूषण की सुध शायद ही किसी को हो, होगी भी तो परिलक्षित नहीं होती है। हम चेतेंगे ज़रूर लेकिन समय निकलने के बाद, जैसा कि बड़े-बड़े शहरों में देखा गया है अर्थात दिल्ली, मुंबई, कानपुर इत्यादि।
लेकिन ऊपर बताए गए सभी संघ, समाज, समिति, मोर्चा, दल आदि अगर सच में पर्यावरण के प्रति जागरूक हों तो इस समस्या का निदान निकल सकता है। हवा, जल और ज़मीन की शुद्धता हमारे लिए एक सामाजिक ज़िम्मेदारी बना दी जाए और इसकी अवहेलना करने वालों को हिक़ारत की नज़र से देखा जाय। सभी को एकजुट होकर इसे एक क्रान्ति के रूप में सड़क पर लाना होगा, अन्यथा पौधारोपण बस एक राजनीतिक औपचारिकता बनकर ही रह जाएगी।


बच्चों के माता-पिता

This is a scene in one of the schools in Jamshedpur on the first day after summer vacation. All these parents seem to love their children the most. It was found that teachers were shouting 'go back, go back', parents were quarrelling because one of them pointed out what should be the correct behaviour, children were pressed between parents and watching their parents paving the way for them instead of asking them to pave their own path (just because they are loved ones). What can we conclude from this scene as a society?
- We as parents do not realise what sense we are inculcating in our loved ones
- We think that we love our children the most, without realising that every child is the prince/princess for someone.
- This social behaviour is also one of the measure of the prosperity of the society. Prosperity is not the money but the ease of life.
- This scene is not due to the large population but undisciplined social behaviour, which surely cannot be corrected by GDP of the country but a social revolution for a disciplined society.


उसी समय एक और अभिभावक को स्कूल प्रांगण में हाथ पर सुरती मलते देखा। मना करने पर बोले 'हमें पता था कोई ना कोई ज़रूर टोकेगा'। मैं उनका शुक्रगुज़ार हूँ कि उन्होंने मुझसे उलटा यह नहीं पूछा कि इससे मुझे क्या मतलब।यहीं हम फ़ेल हो जाते हैं कि जानते हुए भी हम समाज में ग़लत करने से अपने आपको रोक नहीं पाते।